________________
इन्द्रिय ( ५ द्रव्येन्द्रिय, ५ भावेन्द्रिय) x १६ कषाय (चार अनन्तानुबन्धी चतुष्क ४ चार कषाय)} ये १७२८० का त्याग + { ३ अचेतन स्त्री (काष्ठ, पाषाण, चित्र) x २ योग (मन,काय) x ३ (कृत कारित अनुमोदना) x ४ कषाय x १० इन्द्रिय} ये ७२० का त्याग = १८.०००
अथवा १० (विषयाभिलाषा, वस्तिमोक्ष, प्रणीत रससेवन, संसक्त द्रव्यसेवन, शरीरांगोपांगोवलोकन, प्रेमी का सत्कार पुरस्कार, शरीर संस्कार, अतीत भोगस्मरण, अनागत भोगाकांक्षा, इष्ट विषय सेवन) x १० (चिन्ता, दशेच्छा, दीर्घ निःश्वास, ज्वर दाह, आहारारुचि, मूर्छा, उन्माद, जीवन, संदेह, मरण) x ५ इन्द्रिय x ३ योग (मन, वचन, काय) x ३ (कृत कारित अनुगोदना) जागृत', .) x ? चिनल, अचेतन) का त्याग = १८,०००
अथवा ३ योग (मन, वचन, काय) को वश में करना x ३ करण (अशुभ कर्म के ग्रहण करने में कारण भूत क्रियाओं के निग्रह को कहते हैं। निमित्त के भेद से इसके मन, वचन, काय ये तीन भेद हैं) x ४ संज्ञा (इनकी अभिलाषा का सर्वथा त्याग) x ५ इन्द्रियवश x १० जीव भेद (पृथ्वीकायिक, जल कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंञ्चेन्द्रिय जीवों की रक्षा) x १० धर्म (उत्तम क्षमा. मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य का पालन) = १८,००० रत्नत्रय- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय आत्मा, अर्थात् जीव को छोड़कर शेष अजीव (षुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश) द्रव्यों में नहीं रहता है। इसलिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र सहित निज शुद्ध चैतन्य आत्मा ही मोक्ष का कारण है। मनुष्य पर्याय (भव) में ही ऐसी योग्यता है जो रत्नत्रय को धारण कर सकती है। अन्य पर्यायों में इस दुर्लभ रत्नत्रय को धारण करना सम्भव नहीं है क्योंकि मनुष्य पर्याय में ही यह जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। यहाँ पर आचार्य भव्य जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे भव्य जीवो ! एक अपना निज आत्मा ही उपादेय है, शेष अन्य द्रव्य तेरे नहीं हैं, वे सब हेय हैं। इसलिए तू शीघ्र ही इस दुर्लभ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
१.१४७