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________________ अर्थात्- पर-पदार्थों से भिन्न अपनी आत्मा के स्वरूप को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है। व्यवहार सम्यग्ज्ञान- व्यवहार नय से विकल्प सहित अवस्था में तत्त्व, द्रव्य आदि के विचार के समय निज आत्मा और पर पदार्थो को जानना ही व्यवहार सम्यग्ज्ञान है। व्यवहार सम्यग्ज्ञान तो परम्परा से मोक्ष का कारण बनता है, लेकिन निश्चय सम्यग्ज्ञान साक्षात् मोक्ष का कारण होता है। सम्यग्ज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान (प्रत्यक्ष) ये पांच भेद हैं। ४- व्यवहार सम्यक्चारित्र का स्वरूप अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति करना और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति करना व्यवहार नय से चारित्र जानना चाहिए और वह चारित्र जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया व्रत, समिति और गुप्ति रूप होता है। भावार्थ- 'चर्यते इति चारित्रम' जिसका जीवन में आचरण किया जाता है वही चारित्र है। हम प्रति क्षण जो कुछ भी क्रिया करते हैं, वह सब क्रिया आचरण कहलाती है। संसारावस्था में क्रिया अनिवार्य रूप से करनी ही पड़ती है। उसका ढंग, प्रक्रिया-वर्तन, प्रणाली आदि यदि स्व-पर का हित करने वाली है तो समझो कि ये सब क्रिया कलाप या जो कुछ भी हम आचरण कर रहे हैं वह सच्चारित्र है। और यदि इससे विपरीत स्व और पर का घातक या हानिकारक चारित्र होता है तो वह दुःचारित्र कहलाता है - जैसे सप्त व्यसन (जुआ खेलना, मांस खाना, मद्य सेवन, चोरी करना, शिकार करना, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन), कषाय (क्रोध, मान, माया. लोभ), पांच पापों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) में लिप्त होना। व्यवहार चारित्र पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के भेद से तेरह प्रकार का होता है। (क) महाव्रत- हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से पूर्ण रूप से सर्वदेश त्याग करना महाव्रत है। १.१४५
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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