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आस्तिक्य- छह द्रव्य, दस धर्म (उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप,
त्याग, आकिञ्चन, ब्रह्मचर्य) तथा धर्म के फल में विश्वास रखना आस्तिक्य
है।
सम्यग्दर्शन के दो भेद और होते है- सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यकदर्शन। (क) सराग सम्यग्दर्शन- जिसमें प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य पाये जाये उसे
सराग सम्यग्दर्शन कहते हैं। (ख) वीतराग सम्यग्दर्शन-आत्मा की विशुद्धि अर्थात् आत्मा का निर्मल होना ही
वीतराग सम्यग्दर्शन है। परमात्मप्रकाश की संस्कृत टीमा में श्री ब्रह्मदेव कहते हैं
निश्चयेन शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागसम्यक्त्वम्, व्यवहारेण तु वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सद्व्यादिश्रद्धानरूपं सरागसम्धक्त्वम् चेति ।
अर्थात-- निश्चयनय से शुद्ध आत्मा की अनुभूति रूप वीतराग सम्यक्त्व है तथा व्यवहार नय से वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित षड्द्रव्यादि का श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व
है।
३- सम्यग्ज्ञान का लक्षण
संशय (शंका), विपर्यय (विपरीत) और अनध्यवसाय (अनिश्चितता) से रहित तथा आकार..सहित 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि रूप से जानना अर्थात् अपने शुद्ध चैतन्य आत्मा को और उससे भिन्न पर वस्तुओं के स्वरूप को जानना सम्यग्ज्ञान है और वह मतिज्ञान आदि अनेक भेद वाला है।
संयम सहित तथा उत्तम ध्यान युक्त मोक्षमार्ग का लक्ष्य जो शुद्ध आत्मा है, वह ज्ञान से ही प्राप्त किया जाता है. इसलिये ज्ञान जानने योग्य है।
इसी संदर्भ में पं० दौलतराम जी कहते है"आप रूप को जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है"
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