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________________ (ख) व्यवहार सम्यग्दर्शन- सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का आठ अंगों (नि:शंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, मार्ग प्रभावना, प्रवचन वात्सल्य) से सहित श्रद्धान करने को व्यवहार से सम्यग्दर्शन कहते हैं। अथवा जीवादि नौ पदार्थो, सात तत्वों व छह द्रव्यों का यथार्थ श्रद्धान करना ही व्यवहार सम्यग्दर्शन है। व्यवहार सम्यग्दर्शन कारण है और निश्चय सम्यग्दर्शन कार्य है। इसी कथन को स्पष्ट करते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र स्वमी कहते हैं श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपभृतां। त्रिमूढापोढ़मष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम्।।४।। अर्थात- परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढताओं (देव मूढ़ता. गुरु मूढ़ता और लोक मूढ़ता) से रहित, उपरोक्त आठ अंगों (निःशंकित. निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, मार्ग प्रभावना, प्रवचन वात्सल्य) से सहित और आठ प्रकार के मदों (कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, तप, बल, प्रभुत्व मद) से रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य अष्ट पाहुड़ के अन्तर्गत दंसणपाहुड में कहते हैंजीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्त ।।२०।। अर्थ-- जिनेन्द्र भगवान् ने जीवादि सात तत्त्वों के श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है और शुद्ध आत्मा के श्रद्धान को निश्चय सम्यक्त्व बतलाया है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सम्यग्दर्शन के चार गुण हैंप्रशम- क्रोधादिक कषायों के उपशम होने को प्रशम कहते हैं। संवेग- संसार. शरीर और भोगों से विरक्त या भयभीत होना संवेग है। अनुकम्पा- दूसरों के दुःखों से स्वयं दुःखी होना और दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करना अनुकम्पा है। १.१४३
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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