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________________ (१) भूमिका पिछले प्रकरणों में "मैं कहां हूं" "मैं कौन हूं" और "मैं कहाँ से आया हूँ" से विदित होगा कि इस संसार में चतुर्गति में अनादि काल से पञ्च परावर्तन करते हुए (देखिए परिशिष्ट १.०४ ), कर्माधीन भटकता हुआ मैं मिथ्यात्व से मलिन एक आत्मा हूँ और किसी पुण्य के संयोग से मैंने यह अतीव दुर्लभ मनुष्य गति को इस समय प्राप्त किया है। क्योंकि मोक्ष (आत्मा की स्वतंत्रता) की प्राप्ति मात्र इस मनुष्य पर्याय से ही सम्भव है, इसलिये यदि मैंने इस मनुष्य भव में भी संसार के परिभ्रमण से निकलने का उपाय व पुरुषार्थ नहीं किया, तो सम्भवतः अनन्त काल में भी मनुष्य गति दुबारा प्राप्त न होने के कारण यह दुर्लभ अवसर दुबारा प्राप्त न हो सके और पुनः इस संसार के अवर्चनीय दुःख उठाने पड़े। इसके लिए मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व का, संयम का मार्ग अपनाना होगा । इस सन्दर्भ में प्रातः स्मरणीय, त्रिकाल वन्दनीय, परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती, आचार्य श्री १०८ शान्ति सागर जी ने अन्त समय यम सल्लेखना के समय जो सभी भव्य जीवों को अन्तिम उपेदश दिया था, वह इस सम्बन्ध में अत्यन्त उपयोगी व कल्याणकारक है। यह उद्बोध परिशिष्ट १०५ में दिया है। आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थ सूत्र में दिया गया है कि "सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि मोक्ष मार्गः" । अर्थात इन तीनों सम्यक् रत्नों की एकता मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करती है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझने के लिए हमें मिथ्यादर्शन का स्वरूप समझना पडेगा क्योंकि मिथ्यादर्शन का विपरीत सम्यग्दर्शन होता है। यद्यपि दर्शन शब्द का अर्थ देखना है तथापि यहां उसका अर्थ श्रद्धान लिया गया है । तत्वार्थ सूत्र की टीका "सर्वार्थसिद्धि" में ऐसा ही कहा है, क्योंकि देखना नहीं अपितु श्रद्धान ही संसार व मोक्ष का कारण होता है। अतः मिथ्यारूप जो दर्शन अर्थात श्रद्धान है, उसका नाम मिथ्या दर्शन है। जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा नहीं मानना और जैसा वस्तु का स्वरूप नहीं है वैसा मानना मिथ्यादर्शन है। यहां वस्तु का तात्पर्य प्रयोजनभूत पदार्थ से है, न कि अप्रयोजन भूत पदार्थ से । इस जीव का प्रयोजन तो संसार के दुःख से छुटकारा पाना है और इस प्रयोजन की सिद्धि जीवादि तत्त्वों (जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तत्त्व) के श्रद्धान से होती है। अतएव जो मोक्ष मार्ग से सम्बन्धित तत्त्व हैं, १ . १४१
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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