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अध्याय ४
मेरा भविष्य क्या है?
मङ्गलाचरण
जं णाण-रयण दीओ, लोयालोय-प्पयासण-समत्थो। पणमामि पुप्फयंत, सुमइकरं भव्व-संघस्स ।।६।। चोत्तीसादिसएहिं, विम्हय -जणणं सुरिंद-पहुदीणं। णमिऊण
सीदल-जिणं ||१०।।
इंद-सद/णमिद-चलणं, अणंत-सुह–णाण-विरिय -दसणया। भव्वंबुज-वण-भाणु, सेयसं-जिणं णमंसामि ।।११।।
अक्खलिय –णाण-दंसण-सहियं सिरि-वासुपुज्ज-जिणसामि णमिऊणं।।१२।।
अर्थ- जिनका ज्ञान रूपी रत्नदीपक लोक एवम् अलोक को प्रकाशित करने में समर्थ है और जो भव्य-समूह को सुमति प्रदान करने वाले हैं ऐसे पुष्पदन्त जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ||६|| चौंतीस अतिशयों से देवेन्द्र आदि को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले शीतल जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ||१०|| सौ इन्ो (४० भवनवासी, ३२ व्यन्तर, २ चन्द्र-सूर्य, २४ कल्पवासी, १ चक्रवर्ती, १ सिंह) से नमस्करणीय चरणों वाले अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्तवीर्य एवम् अनन्त दर्शन वाले तथा भव्य जीवरूप कमलवन को विकसित करने के लिए सूर्य-सदृश श्रेयांस जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।।११।। अस्खलित ज्ञान-दर्शन से युक्त श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।।१२।।
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