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(३) अनुभाग बन्ध- कर्म--प्रदेशों में फल देने की शक्ति की जो हीनाधिकता है, उसे अनुभाग बन्ध कहते हैं।
(४) प्रदेश बन्ध-- ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेशों की संख्या में जो होनाधिकता लिये हुए परिणमन है, उसे प्रदेश बन्ध कहते हैं। (ग) अवशेष संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व
इन का वर्णन अध्याय-- ४ "मेरा क्या भविष्य है" प्रकरण में कहा गया है। (6) पुण्य और पाप पदार्थ
शुभ और अशुभ परिणामों से सहित जीव क्रमश: पुण्यरूप और पापरूप होते हैं। सातावेदनीय, शुभ आयु. शुभ नाम और उच्च गोत्र पुण्य रूप होते हैं, शेष कर्म पाप रूप होते हैं।
भावार्थ (क) पुण्य - आत्मा को जो पवित्र करे या निर्मल करे वह पुण्य है। वह पुण्य दो प्रकार का है- भावपुण्य और द्रव्यपुण्य । भावपुण्य-- शुभ भावों को लाना भाव पुण्य है। द्रव्यपुण्य- ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की शुभ-प्रकृतियों को ग्रहण करना द्रव्यपुण्य है।
(ख) पाप- जो आत्मा को अपवित्र अथवा मलिन करे वह पाप है। यह पाप भी दो प्रकार का है- भावपाप और द्रव्यपाप। भावपाप - मन-वचन-काय के द्वारा अशुभ भावों को लाना भाव-पाप है। द्रव्यपाप- ज्ञानावरणादि कर्मों की अप्रशस्त प्रकृतियों को ग्रहण करना द्रव्य पाप है।
पुण्य और पाप ये दोनों ही जीव को संसार में घुमाने वाले हैं क्योंकि जहाँ पर पुण्य और पाप पाये जाते हैं, वहीं पर संसार का निर्माण हो जाता है। पुण्य और पाप में से पाप सर्वथा हेय है। जब तक हमें शुद्धोपयोग की अवस्था प्राप्त नहीं होती है, तब तक पुण्य हमारे लिए उपादेयभूत है क्योंकि पुण्य से अशुभ कर्मों का आस्रव रुक जाता है। पुण्य-विशेष से ही तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता है।
पंचास्तिकाय में भी कहा गया हैसुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावंति हवदि जीवस्स। दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो।।१३२ ।।
अर्थ-- जीव का शुभ परिणाम पुण्य कहलाता है और अशुभ परिणाम पाप। इन दोनों ही प्रकार के परिणामों से कार्मणवर्गणा रूप पुदगलद्रव्य कर्म-अवस्था को प्राप्त होता है।