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________________ इस कथन को स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में कहते हैं सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु । परिणामो गण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।। अर्थात् - बहिर्भूत शुभाशुभ पदार्थों में जो शुभ परिणाम हैं उसे पुण्य और जो अशुभ परिणाम हैं उसे पाप कहा है। तथा अन्य पदार्थों से हटकर निज शुद्धात्म द्रव्य में जो परिणाम है वह आगम में दुःख-क्षय का कारण बताया गया है। ऐसा भाव शुद्ध भाव कहलाता है । (१०) उपसंहार इस प्रकार अनादिकाल से मिथ्यात्व के वशीभूत संसार में भ्रमण करते-करते वचनातीत दुःख उठाता आया हूँ। अब मैंने इस वर्तमान समय में किञ्चत पुण्योदय से मनुष्य गति पाई है, मात्र जहाँ से ही सम्यक् संयमाचरण के आलम्बन से उत्तम गति (मोक्ष) को प्राप्त करने हेतु पुरुषार्थ कर सकता हूँ । यदि अति दुर्लभ इस मनुष्य गति पाकर भी मैंने मोक्ष जाने का प्रयास नहीं किया, तो जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न हाथ में लेकर यदि कोई फैंक दे, उसी प्रकार मेरी मूढ़ता की पराकाष्ठा होगी और मैं पुनः अनन्तकालीन संसार भ्रमण में ही घोर दुःख उठाते हुए रुलता रहूँगा । सन्दर्भ (१) छहढाला - कृत श्री पं. दौलतराम जी । (२) पद्मनन्दि पंचविंशति रचियता श्री १०८ पद्मनन्दि आचार्य । (३) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) - रचियता श्री मन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती । (४) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) - रचियता श्री भन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती । (५) द्रव्य संग्रह - आचार्य मन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, हिन्दी टीकाकार- मुनि श्री १०८ सुन्दर सागर जी । अधिकारान्त मङ्गलाचरण तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ।। आप्त (ज्ञानी, वीतरागी, हितोपदेशी) की दिव्य ध्वनि अथवा जिनवाणी को मैं मन-वचन-काय से भावपूर्वक नमस्कार करता हूँ। इस वाणी में प्रकाशित जैन धर्म को मैं त्रियोग सम्हालकर नमस्कार करता हूँ । १.१३८
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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