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________________ इससे यह स्पष्ट होता है कि जब-जब भी जीव कषाय-सहित होकर जिन कर्म-पुद्गल-वर्गणाओं को ग्रहण करता है, तब-तब उसको बन्ध होता है। यदि वह कषाय सहित न हो तो उसको कभी भी बन्ध नहीं हो सकता। जैसे- जहाँ –जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, इसी प्रकार जहाँ -जहाँ कषाय होती है वहाँ-वहाँ बन्ध होता (ख) बन्ध के भेद तथा उनके कारण प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध के भेद से बन्ध चार प्रकार का है। उसमें प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग से और स्थिति और अनुभाग बन्ध . कषाय से होते हैं। भावार्थ- बन्ध के प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध ये चार भेद हैं। जब कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु का आवरण बनती है तो उस वस्तु में (१) ढकने का स्वभाव, (२) आवरण का काल, (३) आवरण की अधिकतम न्यूनतम शक्ति और (४) आवरण करने वाली वस्तु का परिमाण - ये चार बातें एक साथ प्रकट होती हैं। आगम में इन्हीं को क्रमशः प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध कहा है। इसमें प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध ये दो बन्ध योग के निमित्त से होते हैं अर्थात ये सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक रहते हैं क्योंकि कारण के होने पर ही कार्य होता है। योग कारण है और कार्य है बन्ध। सयोग केवली गुणस्थान में कोई आचार्य तो बन्ध को स्वीकार करते हैं और कोई आचार्य बन्ध को स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि वह एक समय के बन्ध को बन्ध नहीं मानते हैं। सयोग केवली गुणस्थान के बाद योग का अभाव है, इसलिए वहाँ पर कोई भी बन्ध नहीं है। स्थिति और अनुभाग बन्ध ये दो बन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं। इन चारों बंधों के लक्षण निम्नवत हैं: (१) प्रकृति बन्ध- कर्म-परमाणु में ज्ञान आदि को आवृत्त करने आदि का स्वभाव पड़ना प्रकृति बन्ध है। (२) स्थिति बन्ध- कर्म प्रदेशों में फल देने की शक्ति का जो हीनाधिक काल - है उसे स्थिति बन्ध कहते हैं अर्थात् कर्मों का आत्मा के साथ ठहरने का काल । १.१३६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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