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का यही क्रम मान्य है । अब यहाँ प्रश्न यह है कि उन आठ कर्मों में अन्तराय कर्म जो कि घातिया कर्म है वह अघातिया के अन्त में क्यों कहा ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि अन्तराय कर्म यद्यपि घातिया है, तथापि अघातिया कर्मों की तरह समस्तपने से जीव के गुणों के घातने को वह समर्थ नहीं है, इस कारण अघातिया कर्मों के अन्त में कहा है और नाम, गोत्र तथा वेदनीय इन तीन कर्मों के निमित्त से ही वह अपना कार्य करता है। अब अन्य कर्मों का क्रम कहते है। नाम कर्म का कार्य चार गति रूप या शरीर की स्थिति रूप है। वह आयु कर्म के बल से ( सहायता से) ही है । इसलिये आयु कर्म को पहले कहकर पीछे नाम कर्म कहा है। और शरीर के आधार से ही उत्कृष्टपना या नीच पना होता है, इस कारण नाम कर्म को गोत्र कर्म के पहले कहा है । अब प्रश्न यह होता है कि वेदनीय कर्म जो अघातिया है, उसको घातिया कर्मों के बीच में क्यों कहा है। इसका कारण यह है कि वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म के भेद जो राग द्वेष हैं उनके उदय के बल से ही घातिया कर्मों की तरह जीवों का घात करता है । अर्थात इन्द्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में रति (प्रीति) और किसी में अरति (द्वेष) का निमित्त पाकर सुख तथा दुःख स्वरूप साता और असाता का अनुभव कराके जीव को अपने ज्ञानादि गुणों में उपयोग में नहीं करने देता, पर स्वरूप में लीन करता है । इस कारण अर्थात घातिया होने की तरह होने से घातियाओं के मध्य में तथा मोह कर्म के पहले इस वेदनीय कर्म को कहा गया है।
(८) बन्ध तत्व
आश्रव द्वारा आये हुए कर्मों का आत्म प्रदेशों के साथ सम्बद्ध हो जाने को बंध कहते हैं। इसके दो भेद हैं- भाव बन्ध और द्रव्य बन्ध ।
(क) भाव बन्ध और द्रव्य बन्ध के लक्षण
बज्झदि कम्मं जेण दु चेदण-भावेण भावबंधो सो । कम्मादपदेसाणं अण्णोण्ण-पवेसणं इदरो । । ३२ ।।
( द्रव्य संग्रह )
अर्थ- आत्मा के जिन परिणामों से कर्म बन्धता है उन्हें भाव बन्ध कहते हैं। कर्म और आत्मा के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना द्रव्य बन्ध है ।
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