SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव की प्रशंसा हो, उसे यशः कीर्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से संसार में जीव की प्रशंसा न हो, उसे अयश कीर्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अंगोपांगों की ठीक-ठीक रचना हो, उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं। वह दो प्रकार का है- जो जाति नाम कर्म की अपेक्षा से नेत्रादिक इन्द्रियाँ जिस जगह होनी चाहिये, उसी जगह उन इन्द्रियों की रचना करे, वह स्थान निर्माण है । और जितना नेत्रादिक का प्रमाण (माप) चाहिये उतने ही प्रमाण बनावे, वह प्रमाण निर्माण है। जो श्रीमत अहंत पद का कारण हो, वह तीर्थकर नाम कर्म कहलाता (छ) गोत्र कर्म (२)- कुल की परिपाटी के क्रम में चला आया जो जीव का आचरण उसकी गोत्र संज्ञा है, अर्थात उसे गोत्र कहते हैं। इसके दो भेद हैं। जिस कुल परम्परा में ऊँचा (उत्तम) आचरण हो, तो उसे उच्च गोत्र कहते हैं। यदि निंद्य आचरण हो, तो वह नीच गोत्र कहा जाता है। (कुल का संस्कार अवश्य आ जाता है. चाहे वह जीव कैसे भी विद्यादि गुणों कर सहित क्यों न हो। उस पर्याय में संस्कार नहीं मिटता)। (ज) अन्तराय कर्म (५)- यह वह कर्म है जो "अन्तरं एति" अर्थात दाता तथा पात्र में अन्तर व्यवधान करे। इसका स्वभाव भण्डारी सरीखा है। जैसे भण्डारी (खजान्ची) दूसरे को दान देने में विघ्न करता है- देने से रोकता है, उसी प्रकार अन्तसय कर्म दान लाभादि में विघ्न करता है। इसके पांच भेद हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। इस प्रकार सभी प्रकार के भेद, प्रभेदों से इन समस्त आठों कर्मों की १४८ प्रकृति हो जाती हैं। उपरोक्त आठ कर्मों को इसी क्रम में लिखने के कारण को कहते हैं। आत्मा के सब गुणों में ज्ञान गुण पूज्य है. इस कारण उसे पहले कहा है। उसके पीछे दर्शन कहा है। उसके बाद सम्यक्त्व कहा है तथा वीर्य शक्ति रूप है। इसी कारण इन गुणों का आवरण करने वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय; इन चार कर्मों
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy