SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्त्री तथा पुरुष दोनों में रमण करने की इच्छा आदि मिश्रित भाव होने से नपुंसक वेद कर्म कहते हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म के यह सभी २८ प्रकार के भेद हुए । (ड.) आयु कर्म (४) कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ और मोह अर्थात अज्ञान, असंयम तथा मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ संसार अनादि है। उसमें जीव का अवस्थान रखने वाला आयु कर्म है। वह उदय रूप होकर मनुष्यादि चार गतियों में जीव को रखता है यह कर्म उन उन गतियों में जीव को रोककर रखता है। यह चार प्रकार है- नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । (च) नाम कर्म (६३) - नाम कर्म, गति आदि अनेक प्रकार का है। वह नारकी वगैरह जीव की पर्यायों के भेदों को और औदारिक आदि पुद्गल के भेदों को तथा जीव के एक गति से दूसरी गति रूप परिणमन को कराता है। अर्थात् चित्रकार की तरह वह अनेक कार्यों को किया करता है। भावार्थ- जीव में जिनका फल हो सो जीव- विपाकी, पुद्गल में जिसका फल हो सो पुद्गल - विपाकी, क्षेत्र - विग्रहगति में जिसका फल हो सो क्षेत्र विपाकी और भव विपाकी। यद्यपि भव-विपाकी आयु कर्म को ही माना है, परन्तु उपचार से आयु का अविनाभावी गति कर्म भी भव विपाकी कहा जा सकता है। इस तरह 'नाम कर्म' जीव विपाकी आदि चार तरह की प्रकृतियों रूप परिणमन करता है। (१) से (४) (५) से (६) जिसके उदय से यह जीव एक पर्याय से दूसरी पर्याय को "गच्छति " प्राप्त हो, वह गति नाम कर्म है। उसके चार भेद कहे हैं। नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देवगति नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से क्रमशः नारकी, तिर्यंच, मनुष्य देव के शरीराकार करावे । उन गतियों में अव्यभिचारी सादृश्य धर्म से जीवों को इकट्ठा करेवो जाति नाम कर्म है। इसके एकेन्द्री जाति, बेइन्द्रीजाति, तेइन्द्री जाति, चौइन्द्री जाति तथा पंचेन्द्री जाति - ये पाँच भेद हैं। १. १२८
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy