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कहलाता है। (३)सभ्यग्मिथ्यात्व
जिस कर्म के उदय से वस्तु का यथार्थ श्रद्धान और दर्शनमोहनीय
अयथार्थ श्रद्धान दोनों ही मिले हुए हों। इन परिणामों को सम्यक्त्व या मिथ्यात्व दोनों में से किसी में भी
नहीं कह सकते। आगे चारित्र मोहनीय के दो भेद- कषाय वेदनीय (१६ भेद) तथा नोकषाय वेदनीय (६ भेद) हैं। जो घात करें अर्थात् गुण को प्रगट न होने दें उनको कषाय कहते हैं। उसके क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद हैं। इनकी चार-चार अवस्थायें हैं। अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानवरण, प्रत्याख्यावावरण और संज्वलन। इन अवस्थाओं का स्वरूप क्रम से कहते हैं। अनन्त नाम संसार का है; परन्तु जो उसका कारण हो वह भी अनन्त कहा गया है, क्योंकि वह अनन्त संसार का कारण हैं। जो इस अनंत मिथ्यात्व के अनु साथ-साथ बंधे, उस कषाय को अनन्तानुबन्धी कहते हैं जो "अ" अर्थात ईषत- थोड़े से भी प्रत्याख्यान को न होने दे, अर्थात जिसके उदय से जीव श्रावक के व्रत भी धारण न कर सके उसको अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिसके उदय से प्रत्याख्यान अथवा सर्वथा त्याग का आवरण हो, महाव्रत नहीं हो सके, उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिसके उदय से संयम "सं" एक रूप होकर "ज्वलित" प्रकाशित करे, अर्थात जिसके उदय से कषाय अंश से मिला हुआ संयम रहे, कषाय रहित निर्मल यथाख्यात संयम न हो सके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं। इन प्रभेदों को चार प्रकार की कषाय से गुणा करने से कषाय वेदनीय के १६ भेद हो जाते है।
जो नो अर्थात् ईषत- थोड़ा कषाय हो--प्रबल नहीं हो, उसे नोकषाय कहते हैं, अथवा उसका जो अनुभव करावे वह नोकषाय कहा जाता है। यह नौ प्रकार का है। हास्य प्रकट होने से हास्य कर्म, देश धन पुत्रादिकों में प्रीति होने से रति कर्म, देश आदि में अप्रीति होने से अरति कर्म, इष्ट के वियोग होने पर क्लेश होने से शोक कर्म, उद्वेग (चित्त में घबड़ाहट) होने से भय कर्म, ग्लानि-अपने दोष को ढकना और दूसरे के दोष को प्रकट करना जुगुप्सा कर्म है, जिसके उदय से स्त्री सम्बन्धी भाव (मायाचार की अधिकता, पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा आदि) हों उसको स्त्री वेद कर्म, स्त्री में रमण करने की इच्छा आदि परिणाम होने से पुरुष वेद कर्म, और
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