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________________ (४) केवलदर्शनावरण - केवलदर्शन का आवरण करे। (५) निद्रा -- जिसके उदय से मद, खेद आदिक दूर करने के लिए केवल सोना हो। (६) प्रचला - जिसके उदय से शरीर की क्रिया आत्माको चलावे और जिस निद्रा में कुछ काम करे उसकी याद भी रहे, अर्थात कुत्ते की तरह अल्प निद्रा हो। (७) निद्रा निद्रा - निद्रा की ऊँची-पुनः पुनः प्रवृत्ति हो अर्थात आंख की पलक भी न उघाड़ सके। (८.) प्रचला प्रचला - जिसके उदय से क्रिया आत्मा को बार-बार चलाये। (६) स्त्यानगृद्धि - जिसके उदय से यह जीव नींद में ही उठकर बहुत पराक्रम का कार्य तो करे, परन्तु उसका भान नहीं रहे। (ग) वेदनीय कर्म (२) - इन्द्रियों का अपने-अपने रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय कर्म का कार्य है। (१) साता वेदनीय - सुखरूप अनुभव करना। (२) असाता वेदनीय - दुःखरूप अनुभव करना। (ग) मोहनीय (२८) जो मोहै अर्थात असावधान (अचेत करे)-इससे जीव को अपने स्वरूप का विचार नहीं हो पाता। ये दो प्रकार का है-दर्शन मोहनीय (३ भेद) और चारित्र मोहनीय (२५ भेद) (१) मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय- खोटा श्रद्धान करे, अर्थात सर्वज्ञ-कथित वस्तु के यथार्थ स्वरूप में रुचि ही न हो और न उस विषय में उद्यम करे, तथा न ही हित अहित का विचार करे। (२) सम्यक्त्वप्रकृति यद्यपि सम्यकत्व गुण का मूल से धात तो न हो दर्शनमोहनीय किन्तु परिणामों में मलिनता तथा चलायमानता हो जाये। जैसे यह मन्दिर मेरा है, शान्तिनाथ शांति को करने वाले हैं आदि। इस प्रकृति वाला सम्यग्दृष्टि ही १.१२६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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