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________________ उपाध्याय-स्तवन अण्णाण-घोर-तिमिरे, दुरंत-तीरम्हि हिंडमाणाणं । भवियाणुज्जोययरा, उवज्झया दर-मदि देंतु ।।४।। अर्थ- दुर्गम तीर वाले अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकते हुए भव्य जीवों के लिए ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी उत्कृष्ट बुद्धि प्रदान करें ।।४।। साधु-स्तवन थिर-धरिय-सीलमाला,वदगय-राया जसोह-पडहत्था । बहु-विणय -भूसियंगा, सुहाई साहू पयच्छंतु ।।५।। अर्थ-शीलव्रतों की माला को दृढ़तापूर्वक धारण करने वाले, राग से रहित, यश समूह से परिपूर्ण और विविध प्रकार के विनय से विभूषित अङ्गवाले साधु (परमेष्ठी) सुख प्रदान करें ।।५।। अनन्तानन्त आकाश जो एक द्रव्य है और जिसका प्रमाण त्रिकाल के समयों से भी अनन्तगुणा है, सर्वज्ञ द्वारा स्पष्ट अवलोकित है। द्रव्य के सामान्य गुण जैसे सत्ता, उत्पाद- धौव्य-व्यय आदि इसमें विराजमान हैं। यह जीवादिक समस्त द्रव्यों को युगपत अवकाश देता है तथा सर्वव्यापी अनन्तानन्त प्रदेशमयी है। यद्यपि आकाश द्रव्य निश्चयनय से अखंडित एक द्रव्य है. तथापि व्यवहारनय से इसके दो भेद हैंलोकाकाश और अलोकाकाश | अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य में जिस भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच अन्य द्रव्य भी हैं, उस भाग को लोकाकाश कहते हैं और शेष भाग को अलोकाकाश कहते हैं। यह सब अनादि अनन्त हैं- इसको किसी ईश्वरादि ने बनाया नहीं है। ये छहों द्रव्य द्रव्यार्थिक नय से नित्य हैं, इसलिये लोक जो इनका समूह है कथंचित नित्य है और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है, इसलिये लोक कथंचित अनित्य भी है। (१) लोक ___ लोक की ऊँचाई चौदह राजू, मोटाई (उत्तर-दक्षिण दिशा में) सर्वत्र सात राजू और पूर्व–पश्चिम दिशा में चौड़ाई मूल में सात राजू, मध्य में एक राजू, मध्य लोक और लोकांत के मध्य में पांच राजू और लोक के अंत में एक राजू है, जैसा कि चित्र नं १.०१ व १.०२ में दिखाया गया है। इसका आयतन ३४३ घनराजू होता है। यह सब १.२
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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