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अध्याय – १
मैं कहाँ हूँ
मङ्गलाचरण
अरिहन्त-स्तवन घण-घाइ-कम्म-महणा, तिहुवण-वर-भव-कमल-मत्तंडा |
रिहा अण]-णा, अणुवम-सोक्खा जयंतु जए ।।१।। अर्थ- प्रबल घातिया कर्मों का मन्थन करने वाले, तीन लोक के उत्कृष्ट भव्यजीवरूपी कमलों के लिए मार्तण्ड (सूर्य), अनन्तज्ञानी और अनुपम सुख वाले अरिहन्त भगवान जग में जयवन्त होवें ।।१।।
सिद्ध-स्तवन अट्ठ-विह-कम्म-वियला, णिट्ठिय-कज्जा पणट्ठ-संसारा।
दिट्ठ-सयलत्थ-सारा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु |१२|| अर्थ- आठ प्रकार के कर्मों से रहित, करने योग्य कार्यों को कर चुकने वाले, संसार को नष्ट कर देने वाले और सम्पूर्ण पदार्थों के सार को देखने वाले सिद्ध परमेष्ठी मेरे लिए सिद्धि प्रदान करें।।२।।
आचार्य-स्तवन पंच-महव्यय-तुंगा, तक्कालिय–सपर-समय-सुदधारा।
णाणागुण-गण-भरिया, आइरिया मम पसीदंतु ।।३।। अर्थ- पाँच महाव्रतों से उन्नत, तत्कालीन स्व-समय और परसमय स्वरूप श्रुतधारा (में निमग्न रहने) वाले और नाना गुणों के समूह से परिपूरित आचार्यगण मेरे लिए आनन्द प्रदान करें ।।३।।