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________________ I i : 1 · मरण, अनर्थ की आशंका करके अपकारक वस्तु से दूर रहने या भागने की इच्छारूप भय, क्लेश के कारणभूत अनिष्ट पदार्थ की प्राप्तिरूप संयोग, सुख के कारणभूत अभीष्ट पदार्थ के दूर होजानेरूप वियोग, इनसे होने वाले अन्य भी अनेक प्रकार के दुःख तथा आहार आदि विषयक तीन प्रकार की संज्ञाएँ, शरीर की अस्वस्थतारूप अनेक प्रकार की व्याधि त आदि शब्द से पान भंग का बन्धन आदि दुःख जिस गति में अपने-अपने कारणभूत कर्मों का अभाव हो जाने से नहीं पाये जाते, उसको सिद्धगति कहते हैं । (३) नरभव की दुलर्भता "मैं कहाँ हूँ" नामक प्रकरण से विदित होगा कि निगोद जीव अनन्तानन्त हैं। ( अक्षय अनन्त), उनसे कम किन्तु लगभग अनन्त अन्य एकेन्द्रिय जीव हैं। अनादि काल से निगोद में पड़ा हुआ यह जीव किञ्चित कषाय की मन्दता से अथवा किसी अरिहन्त प्रभु के केवली समुदघात का संयोग पाकर, निगोद से बाहर निकलकर पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों में हुआ। इससे त्रस गति अति दुर्लभ है, अर्थात द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य और भी दुर्लभ है। किन्तु इसमें भी विषय वासनाओं में लिप्त रहने के कारण चतुर्गतिरूपी संसार में दुःख उठाते हुए चिरकाल तक भ्रमण करता रहा । कभी संयम धारण कर देवगति प्राप्त की, तो पुनः विषयों में आसक्त रहने के कारण एकेन्द्रिय जीवों में अथवा इतर निगोद में चला गया । (४) संसार भ्रमण और कर्म "मैं कौन हूँ" प्रकरण में 'जीव और तत्त्व वर्णन में सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष) और नव पदार्थ ( इन सात तत्त्वों में पुण्य पाप जोड़कर) का वर्णन आया है। इनका विपरीत श्रद्धान अथवा मिथ्यादर्शन कर्मों के आने का ( आश्रव) व आत्मा से बंधने का (बंध) का कारण है। जीव के अनादि काल से संसार भ्रमण का मूल कारण यही मिथ्यादर्शन अथवा मिथ्यात्व है। (५) आश्रव तत्त्व आत्मा के जिस परिणाम से कर्म आते हैं, वह जिनेन्द्र देव का कहा हुआ भावास्रव जानना चाहिए। पुद्गल कर्मों का आना दूसरा द्रव्यास्रव होता है । १. १२१
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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