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________________ वशित्व-इन आठ ऋद्धियों के द्वारा सदा अप्रतिहतरूप से विहार करते हैं और जिनका रूप, लावण्य, यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहता है, उनको परमागम में देव कहा है। भावार्थ- देव शब्द दिव धातु से बनता है जिसके कि क्रीड़ा विजिगीषा व्यवहार द्युति स्तुति मोद मद आदि अनेक अर्थ होते हैं। अतएव निरूक्ति के अनुसार जो मनुष्यों में न पाये जा सकने वाले प्रभाव से युक्त हैं तथा कुलाचलों पर वनों में या महासमुद्रों में सपरिवार विहार-क्रीड़ा किया करते हैं। बलवानों को भी जीतने का भाव रखते हैं। पञ्चपरमेष्ठियों या अकृत्रिम चैत्य चैत्यालयों आदि की स्तुति वन्दना किया करते हैं। सदा पंचेन्द्रियों के सम्बन्धी विषयों के भोगों से मुदित रहा करते हैं, जो विशिष्ट दीप्ति के धारण करने वाले हैं, जिनका शरीर धातुमल दोष रहित एवं अविच्छिन्न रूप लावण्य से युक्त सदा यौवन अवस्था में रहा करता है और जो अणिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं उनको देव कहते हैं। यह देव पर्याय के स्वरूप मात्र का निदर्शन है। लक्षण के अनुसार जो अपो कारणों से संचित देवायु और देवगति नाम कर्म के उदय से प्राप्त पर्याय को धारण करने वाले संसारी जीव हैं वे सब देव हैं। सिद्धों का स्वरूप इस प्रकार संसार सम्बन्धी चारों गतियों का स्वरूप बताकर संसार से विलक्षण सिद्धों का स्वरूप बताते हैं जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्ध गई।।१५२ ।। (गोम्मटसार--- जीवकाण्डम) अर्थ- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पाँच प्रकार की जाति, बुढ़ापा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दुःख आहारादि विषयक संज्ञाएँवांछाएँ और रोग आदि की व्याधि इत्यादि विरूद्ध विषय जिस गति में नहीं पाये जाते उसको सिद्ध गति कहते हैं। भावार्थ- जाति नाम कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली एकेन्द्रियादिक जीव की पांच अवस्थाएँ. आयु कर्म के विपाक आदि कारणों से शरीर के शिथिल होने पर जरा, नवीन आयु के बन्धपूर्वक भुज्यमान आयु के अभाव से होने वाले प्राणों के त्यागरूप १.१२०
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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