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घूमता रहता है, उसे कहीं पूर्ण सुख नहीं मिलता, वह सदा दुःखी रहता है। (चित्र १.२२) (२) गति
प्रसंगवश, इन चारो गतियों के स्वरूप को कहते हैं। (क) नारक पति
जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते, उनको नारत (नारकी) कहते हैं।
भावार्थ- शरीर और इन्द्रियों के विषयों में, उत्पत्ति शयन विहार उठने बैठने आदि के स्थान में, भोजन आदि के समय में, अथवा और भी अनेक अवस्थाओं में जो स्वयं अथवा परस्पर में प्रीति (सुख) को प्राप्त न हों, उनको नारत कहते हैं। अथवा जो नरकगति नाम कर्म के उदय से हों उनको नारक कहते हैं। क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरन्तर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगंतुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दुखों से दुखी रहते हैं। (ख) तिर्यग्गति
जो मन वचन काय की कुटिलता को प्राप्त हों और जो निकृष्ट अज्ञानी हों तथा जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यञ्च कहते हैं।
भावार्थ-- जिनमें कुटिलता की प्रधानता हो तथा जिनकी आहारादि संज्ञा प्रकट हो, और श्रुत का अभ्यास तथा शुभोपयोगादि के न कर सकने से जिनमें अत्यन्त अज्ञानता पाई जाय तथा मनुष्य की तरह महाव्रतादिक को धारण न कर सकने और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आदि के न हो सकने से जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय, उनको तिर्यंच कहते हैं।
तात्पर्य यह कि निरूक्ति के अनुसार तिर्यग् गति का अर्थ माया की प्रधानता को बताता है। यथा-तिरः-तिर्यग्भावं-कुटिपरिणामं अञ्चन्ति इति तिर्यचः। माया प्रधान परिणामों से संचित कर्म के उदय से यह गति-पर्याय प्राप्त होती है। उनकी भाषा अव्यक्त होने से वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने में असमर्थ रहा करते हैं। मनुष्यों के समान इनमें विवेक- हेयोपादेय का भेदज्ञान, श्रुताभ्यास, शुभोपयोग आदि भी नहीं
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