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________________ इसके पश्चात का सम्पूर्ण जीवन अज्ञान और मोह का है। बाल्यावस्था तो खेल-कूद में यों ही व्यतीत हो जाती है, उस समय अपने भले-बुरे का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता। युवावस्था में भले-बुरे को समझने के ज्ञान-चक्षु तो खुलते हैं, लेकिन जीवन विषय-रूपी मोह में व्यतीत हो जाता है; अतः ज्ञान भी मोह के कारण अज्ञान में डूबा रह जाता है। वृद्धावस्था अपनी असमर्थता के लिये रोते-रोते ही व्यतीत हो जाती है, अतः ज्ञान होते हुए भी व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को समझ अपना उद्वार नहीं कर पाता। (चित्र १.२०) देवगति में भवनत्रिक दुःख कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुर-तन धरै। विषय -याह-दावानल ब्रह्मौ. परत दिलाप करत दुःख सनौ ।।१५।। मनुष्य अपने परिवर्तन चक्र में कहीं भी सुख का अनुभव नहीं करता, दुःख का कोई न कोई कारण सदा विराजमान रहता है। कभी-कभी मनुष्य समता भाव से कर्मों के फल को भोग लेता है, तो इससे भी कर्मों की निर्जरा होती है और इस मन्द कषाय के परिणाम स्वरूप वह भवनवासी, व्यन्तर अथवा ज्योतिषी देव का शरीर धारण करता है। वहां उसे अनेक सुविधायें प्राप्त हैं पर चिर-अतृप्ति तो जीव में अनादि से है, वह वहां भी विषय- इच्छाओं की चाह रूपी अग्नि में जलता रहता है और जब मरणकाल आता है, तब विषय- वासनाओं के वियोग में दुःखी होता है; अतः वहाँ भी विलाप करते-करते प्राण त्याग देता है। इस प्रकार जीव को कहीं भी सुख नहीं मिलता। (चित्र १.२१) विमानवासी देवों के दुःख जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय ! तहँ ते चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै।।१६ ।। देवों की पर्याय में केवल सुख ही सुख नहीं है: दुःख भी है। यदि वहाँ जाकर जीव विमानवासी देव भी बन जाता है, तब भी 'स्व' और 'पर' की ठीक-ठीक प्रतीति न होने के कारण दुःख ही पाता है। मिथ्यादर्शन की तीव्रता से देवगति से निकलकर वह फिर स्थावर होता है; पश्चात कभी विकलत्रय, कभी तिर्यञ्च, कभी नारकी, कभी मनुष्य और कभी देवगति में भ्रमण करता रहता है। वह सदैव संसार के परिवर्तन के चक्र में १.११७
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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