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________________ अवस्था को प्राप्त हुई उस उत्कृष्ट आत्मा को जानता है और उसमें लीन होता है, वह स्वयं ही उसके स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् परमात्मा बन जाता है। (१२) आत्मा और आत्म ज्योति जिस चैतन्य रूप तेज के विषय में मन से कुछ विचार नहीं किया जा सकता है, वचन से कुछ कहा नहीं जा सकता है, तथा जो शरीर से भिन्न, अनुभव मात्र से गम्य एवं अमर्त है, वह चैतन्यरूप तेज हम लोगों की रक्षा करे। मन के बाह्य शरीरादि की ओर से हटकर आनन्दरूप समुद्र में डूब जाने पर जो ज्योति प्रतिभासित होती है वह उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति जयवन्त होवे। जो अज्ञान रूप अन्धकार सूर्यादिकों के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता है वह जिस गुरु की निर्मल वचनरूप किरणों के द्वारा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, वह श्रेष्ठ गुरु जयवन्त होवे। वृद्धत्य आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाला दुख तो दूर ही रहे, किन्तु विषय भोगों से उत्पन्न हुआ सुख भी साधु जनों को दुखरूप ही प्रतिभासित होता है। वे जिसको वास्तविक सुख मानते हैं, वह सुख मुक्ति में है और वह बहुत कठिनता से सिद्ध की जा सकती है। लोक में सब ही प्राणियों ने चिर काल से जन्म-मरणरूप संसार की कारणीभूत वस्तुओं के विषय में सुना है, परिचय प्राप्त किया है, तथा अनुभव भी किया है। किन्तु जो शुद्ध आत्मा की ज्योति मुक्ति की कारणभूत है उसकी उपलब्धि उन्हें सुलभ नहीं हुई। जो आत्मा वचनों के अगोचर है- विकल्पातीत है-- उस आत्मतत्त्व के विषय में प्रायः ज्ञान ही नहीं होता है, उसके विषय में स्थिति और भी कठिन है, तथा उसका अनुभव तो दुर्लभ ही है। वह आत्मतत्त्व अत्यन्त दुर्गम है। चूंकि सज्जन मनुष्य व्यवहारनय के आश्चय से ही मुख्य और उपचारभूत कथन को जानकर शुद्ध स्वरूप का आश्रय लेते हैं, अतएव वह व्यवहार पूज्य (ग्राह्य) है। आत्मा के विषय में दृढ़ता (सम्यग्दर्शन), ज्ञान और स्थिति (चारित्र) रूप रत्नत्रय संसार के नाश का कारण है। किन्तु जिसकी बुद्धि शुद्ध निश्चयनय के मार्ग में प्रवृत्त हो चुकी है, उसके लिये वे तीनों (सम्यग्दर्शनादि) एक आत्मस्वरूप ही हैं- उससे भिन्न नहीं हैं। समीचीन सुख (चारित्र), ज्ञान और दर्शन इन तीनों की एकता परमात्मा का अखण्ड स्वरूप है। इसीलिये जो जीव उपर्युक्त परमात्मस्वरूप में लीन होता है, वही उनकी प्राप्ति से कृतकृत्य होता है। जिस प्रकार अभेदस्वरूप से अग्नि में उष्णता रहती है उसी प्रकार से आत्मा में ज्ञान है, इस प्रकार की प्रतीति का नाम शुद्ध सम्यग्दर्शन और ११०१
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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