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________________ चैतन्यस्वरूप ही हैं। कारण कि उस अखण्ड एक वस्तु (आत्मा) में भेदों के लिये स्थान ही कौन सा है ? विशेषार्थ- ऊपर जो सम्यग्दर्शन आदि का पृथक्-पृथक् स्वरूप बतलाया गया है वह व्यवहारनय की अपेक्षा से है। शुद्ध निश्चयनय से उन तीनों में कोई भेद नहीं है, क्योंकि वे तीनों अखण्ड आत्मा से अभिन्न हैं। इसीलिये उनमें भेद की कल्पना भी नहीं हो सकती है। प्रमाण, नय और निक्षेप ये अर्वाचीन पद में स्थित हैं, अर्थात् जब व्यवहारनय की मुख्यता से वस्तु का विवेचन किया जाता है तभी इनका उपयोग होता है। किन्तु शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में केवल एक शुद्ध आत्मा ही प्रतिभासित होता है। वहां वे उपर्युक्त सम्यग्दर्शनादि तीनों भी अभेदरूप में एक ही प्रतिभासित होते हैं। मैं निश्चयनय रूप अनुपम नेत्र से सदा भ्रांति से रहित होकर उसी एक चैतन्य स्वरूप को देखता हूं, किन्तु व्यवहारनयरूप नेत्र से उक्त सम्यग्दर्शनादि को पृथक-पृथक स्वरूप देखता हूं। जो महात्मा जन्म-मरण से रहित, एक, उत्कृष्ट, शान्त और सब प्रकार के विशेषणों से रहित आत्मा को आत्मा के द्वारा जानकर उसी आत्मा में स्थिर रहता है वही अमृत अर्थात् मोक्ष के मार्ग में स्थित होता है, वही मोक्षपद को प्राप्त करता है। तथा वही अरिहन्त, तीनों लोकों का स्वामी, प्रभु एवं ईश्वर कहा जाता है। केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्त सुख स्वरूप जो वह उत्कृष्ट तेज है उसके जान लेने पर अन्य क्या नहीं जाना गया, उसके देख लेने पर अन्य क्या नहीं देखा गया, तथा उसके सुन लेने पर अन्य क्या नहीं सुना गया? अर्थात् एक मात्र उसके जान लेने पर सब कुछ ही जान लिया गया है, उसके देख लेने पर सब कुछ ही देखा जा चुका है, तथा उसके सुन लेने पर सभी कुछ सुन लिया गया है। इस कारण विद्वान मनुष्यों के द्वारा निश्चय से वही एक उत्कृष्ट आत्मतेज जानने के योग्य है, वहीं एक सुनने के योग्य है, तथा वही एक देखने के योग्य है; उससे भिन्न अन्य कुछ भी न जानने के योग्य है. न सुनने के योग्य है, और न देखने के योग्य है। योगीजन गुरु के उपदेश से, अभ्यास से और वैराग्य से उसी एक आत्मतेज को प्राप्त करके कृत-कृत्य (मुक्त) होते हैं, न कि उससे भिन्न किसी अन्य को प्राप्त करके। उस आत्मतेज के प्रति मन में प्रेम को धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है. वह निश्चय से भव्य है व भविष्य में प्राप्त होने वाली मुक्ति का पात्र है। जो ज्ञान स्वरूप जीव कर्म से पृथक होकर अभेद १.१००
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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