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३. देशनालब्धि- जीवादि छह द्रव्यों तथा नौ पदार्थों के उपदेश को देशना कहा जाता है। उस देशना में लीन हुए आचार्य आदि की प्राप्ति को तथा उनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थ के ग्रहण, धारण एवं विचार करने की शक्ति की प्राप्ति को भी देशनालधि कहते हैं ।
४. प्रायोग्यलब्धि - सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को घातकर उसे अन्तःकोड़ाकोड़ि मात्र स्थिति में स्थापित करने तथा उक्त सब कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग को प्रातकर उसे निस्थानीय (घातिया कर्मों के लता और दारुरूप तथा अन्य पाप प्रकृतियों के नीम और कांजीर रूप ) अनुभाग में स्थापित करने को प्रायोग्यलब्धि कहा जाता है ।
५. करणलब्धि - अधः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन प्रकार के परिणामों की प्राप्ति को करणलब्धि कहते हैं। जिन परिणामों में उपरित समयवर्ती परिणाम अधस्तनसमयवर्ती परिणामों के सदृश होते हैं उन्हें अधःप्रवृत्तकरण कहा जाता है (विशेष जानने के लिये देखिये षट्खण्डागम पु. ६, पृ. २१४ आदि) । प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर जो अपूर्व अपूर्व ही परिणाम होते हैं, वे अपूर्वकरण परिणाम कहलाते हैं। इनमें भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सर्वथा विसदृश तथा एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश और विसदृश भी होते हैं। जो परिणाम एक समयवर्ती जीवों के सर्वथा सदृश तथा भिन्न समयवर्ती जीवों के सर्वथा विसदृश ही होते हैं, उन्हें अनिवृत्तिकरण परिणाम कहा जाता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति इन तीन प्रकार के परिणामों के अन्तिम समय में होती है। उपर्युक्त पांच लब्धियों में पूर्व की चार लब्धियां भव्य और अभव्य दोनों के ही जीवों के समान रूप से होती हैं, किन्तु पांचवी करणलब्धि सम्यक्त्व के अभिमुख हुए भव्य जीव के ही होती हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों एकत्रित स्वरूप से मोक्ष के कारण हैं और वास्तविक सुख उस मोक्ष में ही है। इसलिये उस मोक्ष के विषय में प्रयत्न करना चाहिए। आत्मा के विषय में जो निश्चय हो जाता है उसे सम्यग्दर्शन, उस आत्मा का जो ज्ञान होता है उसे सम्यग्ज्ञान, तथा उसी आत्मा में स्थिर होने को सम्यक्चारित्र कहा जाता है। इन तीनों का संयोग मोक्ष का कारण होता है अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा से ये ( सम्यग्दर्शनादि ) तीनों एक
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