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________________ अन्तिम (ऊपरी) भाग में बीचों-बीच मनुष्यलोक प्रमाण ४५ लाख योजन समतल अर्द्धगोलाकार सिद्धशिला है। ऊर्ध्वगमन स्पष्ट करते हुए आचार्य वक़ग्रीव कहते हैंपयडट्ठिदि अणुभागप्पदेशबंधेहिं सव्वदो मुक्को। उड्ढं गच्छदि सेसा विदिसा-वज्ज गदि जति।। अर्थात- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार प्रकार के बन्धनों से सर्वथा निर्मुक्त हुआ जीव केवल ऊपर की ओर जाता है अर्थात ऊर्ध्वगमन ही करता है और बाकी के जीव चार विदिशाओं को छोड़कर छह ओर गमन करते हैं। (११) चेतन आत्मा और जीव यह चैतन्य तत्त्व प्रत्येक प्राणी के शरीर में ही स्थित है। किन्तु अज्ञानरूप अन्धकार से व्याप्त जीव उसको नहीं जानते हैं, इसीलिये वे बाहिर-बाहिर घूमते हैं, अर्थात् विषयभोगजनित सुख को ही वास्तविक सुख मानकर उसको प्राप्त करने के लिए ही प्रयत्नशील होते हैं। कितने ही मनुष्य सदा महान् शास्त्रसमूह में परिभ्रमण करते हुए भी, अर्थात् बहुत से शास्त्रों का परिशीलन करते हुए भी उस उत्कृष्ट आत्मतत्व को काष्ठ में शक्तिरूप से विद्यमान अग्नि के समान नहीं जानते हैं। जो भव्य जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना. प्रायोग्य और करण इन पांच लब्धियों रूप विशेष सामग्री से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रयको धारण करने के योग्य बन चुका है, वह मोक्ष मार्ग में स्थित हो गया है। विशेषार्थ- प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति जिन पांच लब्धियों के द्वारा होती है उनका स्वरूप इस प्रकार है। १. क्षयोपशमलब्धि- जब पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्धक विशुद्धि के द्वारा प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त होते हैं, तब क्षयोपशमलब्धि होती है। २. विशुद्धिलब्धि- प्रतिसमय अनन्तगुणी हीनता के क्रम से उदीरणा को प्राप्त कराये गये अनुभागस्पर्धकों से उत्पन्न हुआ जो जीव का परिणाम सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियों के बन्ध का कारण तथा असातावेदनीय आदि पाप प्रकृतियों के अबन्ध का कारण होता है, उसे विशुद्धि कहते हैं। इस विशुद्धिकी प्राप्ति का नाम विशुद्धिलब्धि है। १.९८
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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