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( २ ) असमर्थ कारण - उपादान- निमित्तात्मक भिन्न-भिन्न प्रत्येक सामग्री अथवा कोई एक दो आदि कम सामग्री को असमर्थ कारण कहते हैं, जैसे कि मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन करने में अपनी ऊर्ध्वगमन स्वभाव रूप स्वयं की शक्ति तो उपादान कारण है और धर्मद्रव्य निमित्त कारण है। जहाँ तक मुक्त जीव को ऊर्ध्वगमन करने में यह दोनों प्रकार की सहकारी समस्त सामग्री मिलती हैं, वहीं तक उसका ऊपर की ओर जाना संभव है। धर्मद्रव्य लोक के अन्त तक ही है, आगे नहीं है। अतः आगे अलोकाकाश में धर्मद्रव्य के न होने से वहाँ पर मुक्त जीव का गमन नहीं होता है। जैसा कि आचार्य उमास्वामी जी कहते हैं
"धर्मास्तिकायाभावात्" अर्थात् अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का अभाव है ।
उत्पाद -- चेतन या अचेतन द्रव्य में अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति को उत्पाद कहते हैं, जैसे मिट्टी के पिंड में घट - पर्याय का होना । 'व्यय- पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है, जैसे घट - पर्याय के उत्पन्न होने पर पिण्ड - पर्याय का व्यय ( विनाश ) । ध्रौव्य- पूर्व-पर्याय का नाश और नई पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपने अनादि स्वभाव को न छोड़ना ध्रौव्य है, जैसे पिण्ड आकार के नष्ट हो जाने पर और घट - पर्याय के उत्पन्न होने पर भी मिट्टी घ्रौव्य रूप से कायम रहती है। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों धर्म एक साथ पाये जाते हैं ।
विशेष- इस संदर्भ में श्रीमद्देवसेनाचार्य कहते हैं-
'स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाश्चरमशरीरात्
किंचिन्न्यूनसिद्धपर्यायाः
अर्थात्
अन्तिम शरीर से कुछ कम जो सिद्ध पर्याय है, वह जीव की स्वभाव द्रव्य व्यञ्जनपर्याय है। आचार्य श्री यतिवृषभ जी कहते हैं
लोयविणिच्छयगंथे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं । ओगाहण परिमाणं भणिदं किंचूण चरिमदेहसमो ।।
अर्थात् लोकविनिश्चय ग्रन्थ में लोक-विभाग में सब सिद्धों की अवगाहना का प्रमाण कुछ कम चरम शरीर के समान कहा है।
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सिद्धशिला - सर्वार्थसिद्धि विमान से १२ योजन ऊपर, योजन मोटी, १ राजू पूर्व-पश्चिम और ७ राजू उत्तर-दक्षिण ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है जिसके
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