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________________ आयु- जिस कर्म के उदय से आत्मा नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के शरीर में रुका रहता है उसे आयुकर्म कहते हैं। अथवा आयुकर्म के निमित्त से आत्मा के अवगाहनगुण का घात होता है। नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव गत्यादिक में नानारूप परिणमता है अथवा शरीरादिक बनाता है अथवा जिस कर्म के उदय से आत्मा के सूक्ष्मत्वगुण का घात होता है उसे नामकर्म कहते हैं। गोत्रकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव का उच्च-नीच गोत्र अर्थात् कुल में जन्म होता है उसे गोत्रकर्म कहते हैं। इस कर्म के क्षय से अगुरुलधुत्व गुण प्रकट होता है। अन्तराय कर्म- जिस कर्म के उदय या निमित्त से दान, लाभ, भोग, उपभोग आदि में विघ्न आता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। इस कर्म के अभाव से अनन्तवीर्य गुण प्रकट होता है। इन आठ कर्मों का क्षय करने पर ही जीव लोक के अग्रभाग तनुवातवलय में सिद्धिशिला से ऊपर स्थित होता है। जैसा कि मोक्षशास्त्र में कहा है- 'तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात्, समस्त कर्मों का क्षय होते ही उसी समय वह मुक्त जीव ऊपर की ओर लोक के अन्त तक जाता है। किसी कार्य के होने में दो कारण अवश्य होते हैं। कारण दो प्रकार के हैं। 'उपादान कारण- पदार्थ के कार्यरूप होने की स्वयं की अपनी शक्त्ति उपादान कारण है। 'निमित्तकारण- उपादान से अन्य बाह्य-सामग्री जो उसे कार्य रूप होने में सहायक हो वह निमित्त कारण है, जैसे मिट्टी घड़े का उपादान कारण है और कुम्हार, चक्र, दंड, चीवर आदि निमित्त कारण हैं। कारण के अन्य प्रकार से दो भेद (१) समर्थ कारण- प्रतिबंधक का अभाव होने पर उपादन निमित्त रूप दोनों प्रकार की सहकारी समस्त सामग्री समर्थ कारण है, इसके होने पर उसी समय कार्य की उत्पत्ति नियम से होती है। १.९६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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