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जीव का सिद्धत्व और ऊर्ध्वगमन स्वभाव णिक्कम्मा अट्ठगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता ।।१४।।
(द्रव्य संग्रह) अन्वयार्थ- (णिक्कम्मा) ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित (अट्ठगुणा) सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित (चरमदेहदो) अन्तिम शरीर से (किंचूणा) कुछ कम (सिद्धा) सिद्ध हैं। (णिच्चा) नित्य (लोयग्गठिदा) लोक के अग्र भाग में स्थित (उप्पादवयेहि) उत्पाद और व्यय से (संजुला) सहित होते हैं।
अर्थ - आठ कर्मों से रहित और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित, अन्तिम शरीर से कुछ कम, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित और लोक के अग्रभाग में अवस्थित जीव सिद्ध कहलाते हैं।
भावार्थ- जीव के रागद्वेषादिक परिणामों के निमित्त से कार्मणवर्गणारूप जो कर्म पुदगलस्कन्ध जीव के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं उन्हें कर्म कहते हैं। कर्म आठ होते हैं
ज्ञानावरण-- जिस कर्म के उदय या निमित्त से आत्मा के ज्ञानगुण पर आवरण पड़ता है उसे ज्ञानावरण कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षय होने से अनन्तज्ञान प्राप्त होता है।
दर्शनावरण-- जिस कर्म के उदय या निमित्त से आत्मा के दर्शनगुण पर आवरण पड़ता है, उसे दर्शनावरण कहते हैं। इस कर्म के क्षय होने पर अनन्तदर्शन प्रकट होता है।
वेदनीय कर्म- जिस कर्म के उदय से जीव के आकुलता होती है अथवा जिस कर्म के उदय से आत्मा के अव्याबाध गुण का घात होता है उसे वेदनीयकर्म कहते हैं।
मोहनीय कर्म- जिसके उदय से जीव अपने आत्मा के स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना समझने लगता है उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। इस कर्म के क्षय होने से सम्यक्त्वादि गुणों की प्राप्ति होती है।
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