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________________ उसी प्रकार से जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है। इन दोनों के साथ उक्त आत्मा के स्वरूप में स्थित होने का नाम सम्यकचारित्र है। आत्मा वाचक शब्द भी निश्चयतः उससे भिन्न है क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा वह आत्मा संज्ञा से रहित (अनिर्वचनीय) है। जो आत्मज्योति गमनादिरूप क्रिया, कर्ता आदि कारक और उनके सम्बन्ध के विस्तार से रहित है वहीं एक मात्र ज्योति मोक्षाभिलाषी साधु जनों के लिये शरणभूत है। वहीं एक आत्मज्योति उत्कृष्ट ज्ञान है, वही एक आत्मज्योति निर्मल सम्यग्दर्शन है, वही एक आत्मज्योति चारित्र है, तथा बही एक आत्म ज्योति निर्मल तप है। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जब स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हो जाता है, तब शुद्ध चैतन्य स्वरूप एक मात्र आत्मा का ही अनुभव होता है। उस समय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप आदि में कुछ भी भेद नहीं रहता। इसी प्रकार ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का भी कुछ भेद नहीं रहता; क्योंकि, उस समय वही एक मात्र आत्मा ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता बन जाता है। इसीलिये इस अवस्था में कर्ता, कर्म और करण आदि कारकों का भी सब भेद समाप्त हो जाता है। वही एक आत्मज्योति नमस्कार करने के योग्य है, वही एक आत्मज्योति मंगल स्वरूप है, वही एक आत्मज्योति उत्तम है, तथा वही एक आत्मज्योति साधुजनों के लिये शरणभूत है। विशेषार्थ- "चत्तारि मंगलं........ चत्तारि लोगुत्तमा...." इत्यादि प्रकार से जो अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलीकथित धर्म इन चार को मंगल, लोकोत्तम तथा शरणभूत बतलाया गया है वह व्यवहारनय की प्रधानता से है। शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा तो केवल एक वह आत्मज्योति ही मंगल. लोकोत्तम और शरणभूत है। प्रमाद से रहित हुए मुनि का वही एक आत्मज्योति आचार है। वही एक आत्मज्योति आवश्यक क्रिया है, तथा वही एक आत्मज्योति स्वाध्याय भी है। केवल उसी एक उत्कृष्ट आत्मज्योति का अनुष्ठान करने वाले साधु के गुणों की. समस्त शीलों की और अत्यन्त निर्मल धर्म की भी सम्भावना है। समस्त शास्ररूपी महासमुद्र का उत्कृष्ट रत्न वही एक आत्मज्योति है तथा वही एक आत्मज्योति सब रमणीय पदार्थों में आगे स्थित अर्थात श्रेष्ठ है। वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तत्त्व है, वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट पद है, वही एक आत्मज्योति भव्य जीवों के द्वारा आराधन करने योग्य है, तथा वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तेज है। वही एक आत्मज्योति साधुजनों के लिये जन्मरूपी वृक्ष को नष्ट करने वाला शस्त्र माना जाता है तथा समाधि में स्थित योगी जनों का अभीष्ट प्रयोजन उसी एक आत्मज्योति की प्राप्ति है। मोक्षाभिलाषी जनों के लिये मोक्ष
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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