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________________ आ जाने के कारण जो जीव चतुर्थ गुणस्थान से नीचे आ पड़ता है परन्तु अभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं आ पाया है, उसे सासादन कहते हैं। मिश्र--- चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव के यदि मिश्र प्रकृति का उदय आता है, तो वहां से गिरकर मिश्र गुणस्थान में आता है। इस गुणस्थान में ऐसे भाव होते हैं जिन्हें न तो सम्यक्त्व रूप कह सकते हैं और न मिथ्यात्व रूप । इस गुणस्थान में किसी की मृत्यु नहीं होती, न मारणान्तिक समुद्घात होता है, न नवीन आयु का बन्ध होता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव चतुर्थ गणमान से गिरकर तृतीय गुणस्थान में आता है, परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीव भी प्रथम गुणस्थान से तृतीय गुणस्थान में पहुंच जाता असंयत- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशमादि होने पर जिसका आत्मा में तत्त्वश्रद्धान तो प्रकट हुआ है, परन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का उदय रहने से संयमभाव जागृत नहीं हुआ है उसे असंयत या अविरत-सम्यग्दृष्टि कहते हैं। देशविरत- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षयोपशम होने पर जिस सम्यग्दृष्टि जीव के हिंसादि पांचों पापों का एकदेश त्याग हो जाता है, उसे देशविरत कहते है। यह त्रस हिंसा से विरत हो जाता है, इसलिए विरत और स्थावर हिंसा से विरत नहीं होता है, इसलिए अविरत कहलाता है। अर्थात् विरताविरत कहलाता है। प्रमत्तविरत- प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदयाभावी क्षय और सदवस्था रूप उपशम तथा संज्वलन का तीव्र उदय रहने पर जिसके आत्मा में प्रमाद-सहित संयम प्रकट होता है, उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं। इस गुणस्थान का धारक नग्न मुद्रा में मुनिरूप रहता है। अप्रमत्तविरत- संज्वलन के तीव्र उदय की अवस्था निकल जाने के कारण जिसके आत्मा से पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नष्ट हो जाता है, उसे अप्रमत्त-विरत कहते हैं। इसके स्वस्थान और सातिशय की अपेक्षा से भेद हैं। अपूर्वकरण- जहाँ प्रत्येक समय में अपूर्व-अपूर्व (नवीन-नवीन) ही परिणाम होते हैं, उसे अपूर्वकरण कहते हैं। इसमें सम-समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश तथा १.९३
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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