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गति में गमन करता है। 'विग्रहगति' -- नया शरीर धारण करने के लिए गमन करने को विग्रहगति कहते हैं। कर्मयोग'- कार्मण-काययोग के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो कम्पन होता है उसे कर्मयोग कहते हैं--
आहारक मार्गणा- शरीर, मन और वचन के योग्य कर्म-वर्गणाओं का ग्रहण आहारक कहलाता है। संसारी जीव अविग्रह गति में आहारक ही होता है। जैसे आचार्य उमास्वामी जी कहते हैं
"एक द्वौ जीहानाहानमः" निग्राशि में जीव एक, दो अथवा तीन समय तक अनाहारक रहता है। लेकिन चौथे समय में नियम से आहारक हो जाता है। गुणस्थान
मोह और योग के निमित्त से आत्मा के गुणों में जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान के चौदह भेद होते है। जैसा कि आचार्य नेमिचन्द्र जी ने गोम्मटसार (जीवकाण्डम्) में कहा है
मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो ये देसविरदो य। विरदा पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य ।।६।। उवसंत खीणमोहो, सजोगकेवलिजिणो अजोगी य। चउदसजीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा।।१०।।
अर्थ- मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत. अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण. अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलिजिन और अयोगकेवलिजिन ये चौदह जीवसमास (गुणस्थान) और सिद्ध इन जीव समासों-गुणस्थानों से रहित हैं।
मिथ्यात्व- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उदय से जिसके आत्मा में अतत्त्वश्रद्धान रहता है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
सासादन- सम्यग्दर्शन के काल में एक समय से लेकर छह आवली तक का समय बाकी रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक का उदय
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