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आसवसंवरणिज्जरबंधो मुक्खो च पुण्ण-पावं च । तह एव जिणाणाए सदहिदव्वा अपरिससा।।
अर्थ - आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन पदार्थों का भी जिनाज्ञा से प्रमाण या श्रद्धान करना सम्यग्दृष्टि का कत्तव्य है। (१०) मार्गणा और गुणस्थानों की अपेक्षा संसारी जीव
संसारी जीव अशुद्धनय से चौदह मार्गणा और चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा चौदह-चौदह प्रकार के होते हैं और शुद्ध नय से सभी संसारी जीव शुद्ध ही होते हैं। यहाँ अशुद्धनय से अभिप्राय व्यवहार नय से है और शुद्धनय से अभिप्राय निश्चयनय से
मार्गणा
जिन-जिन धर्म-विशेषों से जीवों का अन्वेषण (अर्थात् खोज) किया जाता है, उन-उन धर्म-विशेषों को मार्गणा कहते हैं। ३४३ घन राजू प्रमाण लोकाकाश में अक्षय अनन्त जीवराशि भरी हुई है। उसे खोजने अथवा उस पर विचार करने के साधनों में मार्गणा का स्थान सर्वोपरि है। ये मार्गणाएं चौदह प्रकार की होती हैं। आचार्य नेमिचन्द्र जी कहते हैं
गइ-इंदिये च काये, जोये वेये कसाय -णाणे य। संजम-दसण-लेस्सा, भदिया संमत्त सणिण आहारे।।
अर्थात- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार ये चौदह मार्गणाएं हैं।
गतिमार्गणा- नरकगति आदि नाम कर्म के उदय से जो अवस्था होती है उसे नरकगति आदि कहते हैं।
इन्द्रियमार्गणा- जीव की जिनसे पहिचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं अथवा जो अपने स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करने के लिए इन्द्र के समान स्वतंत्र है (किसी दूसरी की अपेक्षा नहीं रखतीं) उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्र का अर्थ आत्मा से है।
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