________________
एक जीव में, धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य में असंख्यात् प्रदेश होते हैं, क्योंकि वे समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। आकाश द्रव्य में अनन्त प्रदेश होते हैं क्योंकि वह लोकाकाश के बाहर भी स्थित है। इसकी कोई सीमा या अन्त नहीं है। पुदगल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश पाए जाते हैं। काल द्रव्य में एक ही प्रदेश होता है। एक-एक लोकाकाश के प्रदेश पर रत्नों की राशि के सामन एक-एक कालाणु स्थित है। प्रदेश का लक्षण
एक पुद्गल परमाणु जितने आकाश द्रव्य को घेरता है अर्थात् स्थान लेता है उत्तने स्थान को प्रदेश कहते हैं। (6) सप्त तत्त्व/नव पदार्थ और जीप
जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व बताए गए हैं। इनमें पुण्य और पाप जोड़ देने से नौ पदार्थ बन जाते हैं। 'तस्य भावः तत्त्वम'- जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है अथवा जो श्रद्धान करने योग्य पदार्थ है, उसका जो भाव अर्थात स्वरूप, उसका नाम तत्त्व है। जीव और अजीव तत्त्व सामान्य हैं तथा शेष पांच तत्त्व पर्याय होने से विशेष कहलाते हैं। "जीव" - जिसमें चेतना पाई जाती है उसको जीव कहते हैं। चेतना ज्ञानदर्शन रूप होती है। "अजीव"- जिमसें चेतना नहीं पायी जाती है उसको अजीव कहते हैं। अथवा जो जीव से विपरीत स्वभाव वाला हो वह अजीव है। इसमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य आ जाते हैं। "आस्रव"- पाप और पुण्य रूप कर्मों के आगमन के द्वार को आश्रव कहते हैं! "बन्ध'- आस्रव द्वारों से आये हुये कर्म-पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह हो जाना बंध है अर्थात् दूध-पानी की तरह मिल जाना। 'संवर'- आनवद्वार के निरोध को संवर कहते हैं। 'निर्जरा'- पूर्व सञ्चित कर्मों की स्थिति पूर्ण होने पर उसका उदय होकर आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाना अथवा तप विशेष से संचित कर्मों का क्रमशः अंशतः झड़ (अलग हो) जाना निर्जरा है। 'मोक्ष'- सम्यग्दर्शनादि कारणों से सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक मूलोच्छेद होना मोक्ष है। पुण्य- जो आत्मा को पवित्र करे उसको पुण्य कहते हैं। "पाप"- जो आत्मा को मलिन करे उसको पाप कहते हैं। कहा भी है
१.८८