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(ग) पूज्य श्री १०८ शुभचन्द्राचार्य के चरण की धूल से चट्टान का स्वर्णमयी
हो जाना। (घ) सन १६४५ में ऐलक श्री सुबल महाराज अपने गृहस्थावस्था (उस समय
का नाम पायगौंडा सत्यगोंडा पाटील) में जब थे तो एक भयंकर सर्प ने उन्हें काट लिया था, जिसके कारण उनके शरीर में अपार दाह हो रही थी, प्यास की वेदना हो रही थी। उस समय तत्कालीन क्षुल्लक समंतभद्र जी तथा कीर्तनकार जिन गोंडा मांगूरकर ने भक्तिपूर्वक विषापहार स्रोत्र पढ़ना प्रारम्भ किया। उस समय जिन भगवान का पंचामृत अभिषेक भी किया गया था। ऋपिनंडल का जाप भी चल रहा था। अभिषेक तथा शांतिधारा पूर्ण होने पर अभिषेक का जल जब श्री पायगोंडा सत्यगौंडा पाटील पर डाला गया तो तत्काल सारी वेदना दूर हो गयी। (सन्दर्भः चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागर जी-- लेखक पं
सुमेरुचन्द्र दिवाकर पृष्ठ ६६-७०) (ङ) बरार प्राप्त के अमरावती जिले के हिबरखेड़ा ग्राम में भगवान पार्श्वनाथ
के अभिषेक के जल के फलस्वरूप वहां के जैन मन्दिर के कर्मचारी को सर्प काटने से चढ़े हुए विषय का उतर जाना। (सन्दर्भः उक्त "चारित्र चक्रवर्ती– पृष्ठ ७०) कुरु देश की राजधानी हस्तिनापुर का राजा विनयधर को एक बार महारोग हो गया। राजा ने बड़े-बड़े वैद्यों से चिकित्सा करवाई, किन्तु कोई फल नहीं हुआ। राजा का सिद्धार्थ नामक मंत्री था, जो शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक जैनी था। एक दिन उसने सवौषधि ऋद्धि के धारक मुनिराज के पाद- प्रक्षालन का जल लाकर राजा को दिया । जिनेन्द्र भक्त राजा ने श्रद्धापूर्वक उस जल को ग्रहण किया। जल पीते ही उनका रोग नष्ट हो गया। (सन्दर्भ : आराधना कथा कोष, तीसरा भाग, पृष्ठ ४७- लेखक ब्रह्मचारी श्री नेम दत्त जी)
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