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मनो/ मनोवैज्ञानिक रोगों और भावनात्मक आघातों अथवा दर्द को ठीक किया जा सकता है।
यूकैरिस्टिक उपचार को उच्चारक भी होगी पर आजमा सकता है। ग्रहण करने वाले हाथ को पवित्र पदार्थ की ओर करके, उससे दिव्य उपचारी ऊर्जा को ग्रहण करके, दूसरे हाथ से रोगी का स्वच्छीकरण एवम् ऊर्जन करे। गम्भीर केसों में, उपचार को दोहराइए ।
उक्त कथन का आशय यूकैरिस्टिक उपचार की वैज्ञानिक प्रक्रिया स्पष्ट करने का है। जिन पदार्थों को इस प्रकार के उपचार में लिया जा सकता है, अथवा लिया जाता है, वे किसी सिद्धक्षेत्र की पवित्र रज, किसी अतिशय क्षेत्र की पवित्र रज, किसी साधु के द्वारा स्पर्शित वायु एवम् रज, पवित्रीकृत गण्डा / तावीज, श्री जिन प्रतिमा के चरणों से स्पर्शित पवित्र गन्धोदक अथवा किसी विशेष पुण्यशाली से स्पर्शित पदार्थ आदि हो सकते हैं। जैन शास्त्रों के आधार पर निम्न उदाहरण हैं:
उद्भूत भीषण जलोदर - भार भुग्ना :
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशा ।
त्वत्पादपङ्कज रजोऽमृत दिग्ध देहा,
मर्त्या भवन्ति मकरध्वज तुल्य रूपा ।। ४५ ।।
भावार्थ -- जिन मनुष्यों को अत्यन्त भयंकर जलोदर रोग उत्पन्न हो गया हो, जो नितान्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त होकर जीने की आशा छोड़ चुके हों वे यदि आपके चरण कमलों की विभूति ( भभूति) अमृत मानकर लपेट लेते हैं तो वे सचमुच ही कामदेव के समान स्वरूपवान बन जाते हैं। (भक्तामर स्तोत्र से उद्धृत)
(ख) मैनासुन्दरी के गन्धोदक श्रीपाल व उसके साथियों पर छिड़कने के फलस्वरूप उनके कुष्ठ रोग से मुक्ति होकर परम सुन्दरं शरीर हो जाना । (सन्दर्भ : श्रीपाल चरित्र -- स्व० कवि परिमल्ल कृत पद्य ग्रन्थ का पं. दीपचन्द्र जी वर्णी द्वारा हिन्दी भाषा में अनुवाद)
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