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आचार्य हेमचन्द्र
अन्तर्गत हिंसा का जो विधान किया गया है, उसकी तीव्र आलोचना है। 'हिंसाचेत् धर्म हेतु कथम् ? धर्महेतुश्चेद, हिंसाकथम् ? स्वपुत्रघातात् नृपतित्वलिप्सा !" टीकाकार मल्लिसेन त्यंग्य से कहते हैं 'यदि हिंसा है, तो धर्म हेतु कैसा; तथा धर्म हेतु है, तो हिंसा कैसी ? क्या अपने पुत्र की हत्या करके कोई नृपत्व चाहेगा ? उसी प्रकार अ पौरुषेयवाद का भी उन्होंने खण्डन किया है । श्लोक १३-१४ में वेदान्त को आलोचना की गयी है । यदि माया है, तो द्वैतसिद्धि अर्थात् माया और ब्रह्म दोनों की सत्ता सिद्ध है । यदि माया का अस्तित्व ही नहीं है, तो प्रपञ्च कैसा ? माता भी है और वन्ध्या भी है, यह असम्भव है। श्लोक १५ में सांख्यदर्शन का खण्डन है। चेतन-तत्व और जड़-प्रकृति का संयोग यदृच्छा से कैसे सम्भव है ? श्लोक १६, १७ १८ और १६ में हेमचन्द्र ने बौद्ध-दर्शन की आलोचना की है । बौद्धों के क्षणिकवाद् की आलोचना करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि (१) किये गये कर्म का नाश, (२) नहीं किये हुए कर्म का फल, (३) संसार का विनाश, (४) मोक्ष का विनाश, (५) स्मरण-शक्ति का भंग हो जाना इत्यादि दोषों की उपेक्षा करके जो क्षणिकवाद मानने की इच्छा करता है वह विपक्षी बड़ा साहसी होना चाहिए । श्लोक २० में प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाक की आलोचना की गयी है । 'बिना अनुमान के हम सांप्रत-काल में भी बोल नहीं सकते' । श्लोक २१ से ३० तक में हेमचन्द्र जी ने जन दर्शन को प्रतिष्ठित किया है। उसमें विशेषतः सत्य का अनेक विधस्वरूप, उत्पाद, व्यय, धौव्य, सप्तभंगी, स्याद्वाद, नयवाद, आत्माओं को अनेकता का प्रतिपादन किया है। अन्त में जैन दर्शन के व्यापकत्व के विषय में बतलाते हुए हेमचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार दूसरे दर्शनों के सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष व प्रतिपक्ष बनाने के कारण मत्सर से भरे हुए हैं, उस प्रकार अर्हन मुनि का सिद्धान्त नहीं है। क्योंकि यह सारे नयों को बिना भेद-भाव के ग्रहण कर लेता है । श्लोक ३१ तथा ३२ में भगवान महावीर की स्तुति कर उपसंहार किया गया है।
अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिशिका - इसमें प्रामुख्य से स्वमतमण्डन अर्थात् जैन मत प्रतिष्ठापन किया गया है । प्रारम्भ में वे भगवान महावीर की स्तुति प्रस्तुत करते हैं । तत्पश्चात् अत्यन्त सरल एवम् सरस शब्दों में जैन धर्म के गुण गाये हैं। भगवान महावीर के प्रति भक्ति प्रकट करते हुए भी जैन धर्म का स्वरूप संक्षेप तथा प्रासादिक भाषा में वर्णित किया गया है। इसमें विवेचना का स्वरूप नितान्त विधायक है। संसार में आने का कारण आस्त्रव है और मोक्ष का कारण