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आचार्य हेमचन्द्र
पढ़कर कुमारपाल चालुक्य नरेश अपने मनोरथ पूर्ण करें। अत: अपने आश्रयदाता एवम् शिष्यस्वरूप कुमारपाल के लिए वीतराग स्तोत्रों की उन्होंने रचना की, यह बात सिद्ध है। वीतराग स्तोत्र का उल्लेख 'मोहराज-पराजय' नामक नाटक में 'वीस दिव्य गुलिका' के नाम से आया है।
___ संस्कृत स्तोत्र काव्यों में 'वीतराग स्तोत्र' का विशिष्ट स्थान है । भक्ति के कारण यह बड़ा ही मधुर काव्य बन पड़ा है। काव्यकला की दृष्टि से भी यह काव्य श्रेष्ठ है। इसमें भक्ति के साथ जैन-दर्शन सर्वत्र व्याप्त है । काम-राग
और स्नेह-राग का निवारण सुकर है; किन्तु अति पापी दृष्टिराग का उच्छेदन तो पण्डित और साधुसन्तों के लिए भी दुष्कर है । संकुचित साम्प्रदायिक राग दुष्कर है यह कहकर आचार्य हेमचन्द्र ने व्यापक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरणा दी है । दृष्टिदोष के कारण ही मत-मतान्तरों में संकीर्णता आ जाती है। 'वीतराग स्तोत्र' में सर्वत्र भक्ति के साथ समन्वयात्मकता एवं व्यापक दृष्टिकोण दिखाई देता है। इसी से वे जितनी श्रद्धा से महावीर को नमन करते हैं उतनी ही श्रद्धा से अन्य देवताओं को भी । संक्षेप में आचार्य हेमचन्द्र के भक्ति स्तात्रों में रस हैं, आनन्द है और हृदय को आराध्य में तल्लीन करने की सहज प्रवृत्ति हैं । अतः उनका स्थान स्तोत्र साहित्य में विशिष्ट है। 'वीतराग स्तोत्र' में जैन दर्शन का काव्यमय वर्णन भी है।
द्वात्रिंशिका- 'द्वात्रिंशिकाओं' के रचयिता के रूप में आचार्य हेमचन्द्र बहुत प्रसिद्ध हैं। भक्ति की दृष्टि से इन स्तोत्रोंका जितना महत्व है, उससे कहीं अधिक काव्य की दृष्टि से उनका महत्व है। ये दो लघुकाय ग्रन्थ काव्य की दृष्टि से बहुत सुन्दर हैं । एक का नाम हैं, 'अन्ययोगव्यवछेद' तथा दूसरे का नाम 'अयोगव्यवछेद द्वात्रिंशिका' है। दोनों में यथानाम ३२-३२ श्लोक है । उन्होंने 'अन्ययोगव्यवच्छेद' में अन्य दर्शनों का खण्डन किया है। तथा 'अयोगव्यवच्छेद' में केवल स्वपक्षसिद्धि अर्थात् जैन मत की पुष्टि की है । डा. आनन्द शंकर ध्रुव ने उनके अन्ययोगव्यवच्छेद पर जो अभिमत प्रकट किया है वह आचार्य के सभी स्तोत्रों पर पूर्ण रूप से लागू होता है। उनके मत से चिन्तन १-- कामराग स्नेहराग वीषत्कर: निवारणौ ।
दृष्टि रागस्तु पापीयान् दुरुछेदः सतामपि ॥१॥ ... २-- यो विश्वं वेद विद्य.............."बुद्ध वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं
वाशिवं वा, ___ अलोकर्य सकलं................"स महादेवो मया वन्द्यते ॥