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१९.
आचार्य हेमचन्द्र
हो गये थे कि वे अपने उपदेशों में सम्प्रदायातीत हो जाते थे।
आचार्य हेमचन्द्र के धार्मिक ग्रन्थों में ज्ञान और भक्ति में पृथकत्व मानते हुए भी अपृथकत्व का निर्वाह हुआ है। आगे चलकर हिन्दी के जैन भक्त कवियों को यह बात बिरासत में ही मिली। भक्ति और ज्ञान दोनों से ही स्वात्मोपलब्धि होती है । स्वात्मोपलब्धि का नाम ही मोक्ष है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार भगवन्निष्ठा और आत्मनिष्ठा दोनों एक ही हैं । अतः भक्ति और ज्ञान की एकरूपता जिस प्रकार जैन शास्त्रों में विशेषतः आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में घटित होती है वैसो अन्यत्र नहीं। जैन भक्ति की यह विशेषता उसकी अपनी है और इसका श्रेय अधिकाँश में आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों को ही है। यह अनेकान्तात्मक परम्परा के अनुरूप ही है।
__ आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में चरित्र और भक्ति का उत्कृष्ट समन्वय पाया जाता है। दूसरे शब्दों में वहाँ चरित्र की भी भक्ति की गई है। उनका आराध्य केवल दर्शन और ज्ञान से नहीं अपितु अलौकिक चरित्र से भी अलङ्कृत था। चरित्र की शिक्षा निःसन्देह आदर्श नागरिक निर्माण के लिए उपादेय है। चारित्र-भक्ति का सम्बन्ध एक ओर बाह्य संसार से है, तो दूसरी ओर उसका सम्बन्ध आत्मा से है । इससे व्यक्तित्व का समुचित विकास होने के साथ लोकप्रिय व्यवहार भी बनता है । आत्मा में परमात्मा का दिव्यालोक फैलता है ।
आचार्य हेमचन्द्र किसी भी ऐकान्तिक पक्ष को मानने वाले नहीं थे। आत्यन्तिक अशनत्याग के भी वे विरोधी थे। "तेल से दीपक और पानी से वृक्ष की भाँति शरीरधारियों के शरीर आहार से ही टिकते हैं। आज का दिन बिना भोजन के व्यतीत किया उसी प्रकार अब भी यदि मैं आहार ग्रहण न करूं और अभिग्रहनिष्ठ बना रहूँ, तो उन चार हजार मुनियों की जो दशा हुई थी अर्थात् भूख से पीड़ित होकर जिस प्रकार वे व्रतभग्न हुए उसी प्रकार भविष्य के मुनि भी भूख से पीड़ित होकर व्रतभग्न होंगे, यह विचार करके ऋषभदेव भिक्षा के लिये चल पड़े" । आत्मा के सम्बन्ध में भी आचार्य हेमचन्द्र के विचार एकपक्षीय नहीं है। आत्मा को एकान्त और नित्य माने तो यह अर्थ होगा कि आत्मा में किसो प्रकार का अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता अर्थात् उसे सर्वथा कूटस्थ नित्य मानना पड़ेगा; और इसे स्वीकार करने पर सुख:-दुःखादि भिन्न अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होंगी। एकान्त अनित्य मानने से भी वे ही आपत्तियां खड़ी होती हैं । इसीलिये आचार्य हेमचन्द्र आत्मा को नित्यानित्य मानते हैं। एकान्त नित्य१-त्रिषष्ठिशलाका पर्व १-सर्ग ३-श्लोक २३६ से ४२ तक ।