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आचार्य हेमचन्द्र
प्रयत्न करते हैं । योग का अर्थ है चित्तवृत्ति का निरोध । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि इन आठ साधनों से योग की साधना की जाती है ।
जैन दर्शन के पञ्चमहाव्रतों तथा पतञ्जलि योगसूत्र के यमों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं । जैन धर्म के समान ही योगसूत्र में भी यम-नियमों की विवेचना गयी है । योगी के लिए इन की साधना अत्यावश्यक है क्योंकि मन को सबल बनाने के लिए शरीर को सबल बनाना अत्यावश्यक है । जो काम-क्रोधादि पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता उसका मन या शरीर सबल नहीं रह सकता । जब तक मन पाप वासनाओं से भरा है और चञ्चल रहता है तब तक वह किसी विषय पर एकाग्र नही हो सकता, इस लिए योग या समाधि के साधक को सभी आसक्तियों से और कुप्रवृत्तियों से विरत होना आवश्यक है। नियम का पालन का अर्थ है - सदाचार का पालन । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पाँच यम हैं, तथा शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान नियम हैं ।
आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रतिपादित किया है कि सम्यक् ज्ञान, तथा सम्यक् आचार से मोक्ष मिलता है । सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् व्यवहार से ही मोक्ष मिलता है । जैन दर्शन मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करने के हेतु आचार को प्रधानता देता है । नये कर्मों को रोकने के लिए तथा पुराने कर्मों को नष्ट करने के लिए पञ्च महाव्रत पालन करना नितान्त आवश्यक हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह पाँच व्रत हैं । पातञ्जल योगसूत्र में भी यमों का वर्णन करते हुए काया, वाचा, मनसा अहिंसा का पालन करने के लिए कहा है तथा योग साधनों के लिए अत्यन्त सात्विक आहार की उपादेयता बतलाकर अभक्ष्य भक्षण का निषेध किया गया है । यदि सत्य भी परपीड़ाकर हो, तो न बोलना चाहिये । कौशिक तापस के संच कहने से कई मनुष्यों को क्रूर हत्या हुई थी और उसे नरक मिला था । यह कथन मनु- वचन 'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्' इस से बिलकुल मिलता-जुलता है । इस प्रकार सत्य के विषय में आचार्य जी ने मध्यम मार्ग ही बतलाया है । ब्रह्मचर्य के विषय में सुवर्णमध्य का अवलम्बन करते हुए वे योगशास्त्र में लिखते हैं कि अपनी पत्नी की मर्यादित संगति के अतिरिक्त प्रत्येक प्रकार की काम चेष्टा हेय है । इस व्रत का अभिप्रेय है वेश्या, विधवा, कुमारी और परपत्नी का त्याग । “धर्माविरूद्धो भूतेषु कामोऽस्वि" गीता की इस उक्ति से ऊपर की उक्ति में बहुत साम्य दिखाया देता है । अन्त अपरिग्रह व्रत का वर्णन करते हुए हेमचन्द्र कहते हैं कि यह परिग्रह परिमाण
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