________________
आचार्य हेमचन्द्र
अपने ग्रन्थों में वलभी विश्वविद्यालय की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । सुप्रसिद्ध " भट्टिकाव्य" जो हेमचन्द्र के द्वयाश्रय काव्य का आदर्श रहा है - वलभी में ही रचा गया था । एकमात्र महाकाव्य की रचना कर अमर होने वाले महाकवि माघ ने इसी भू-भाग को अलङ्कृत किया था । कथा सरित्सागर में भी वलभी की प्रशंसा पायी जाती है । श्रीमाल भी जैन विद्या का बड़ा केन्द्र था । सिद्धर्षि ने “उपमितिभवप्रपञ्च कथा" वि० सं० ६६२ ज्येष्ठ शुक्ल ५ गुरुवार, पुनर्वसु नक्षत्र में समाप्त की । यह भी गुजरात की प्राचीन राजधानी श्रीमाल में रची गई थी । हरिभद्र- सूरि ने श्रीमाल में 'षड्दर्शनसमुच्चय' और अन्य बहुत से महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थों की रचना की । इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है । आचार्य हेमचन्द्र भी इसी परंपरा के साधकों और आचार्यो की श्रेणी में आते हैं ।
२
श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार देवधिगणि क्षमाश्रमण ने वर्तमान जैन संप्रदाय का निर्माण किया । उन्होंने भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ८० वर्ष बाद अर्थात् ४५४ ई० में विद्या तथा धर्म के केन्द्र वलभी नगर में जैन सम्प्रदाय को वर्तमान रूप दिया । जैन सम्प्रदाय के सभी प्रमुख विद्वान् वहाँ सभा में उपस्थित थे तथा पर्याप्त चर्चा एवं विचारविनिमय के अनन्तर जैन सम्प्रदाय को अधिकृत रूप प्राप्त हुआ । इसी मुनि सम्मेलन में आगम ग्रन्थों को सुसम्पादित किया गया । इस सम्मेलन में कोई ४५-४६ ग्रन्थों का संकलन हुआ और ये आज तक सुप्रचलित हैं । अत: जैन सम्प्रदाय की दृष्टि से भी वलभी नगर एवं गुजरात क्षेत्र का विशेष महत्व है ।
आनन्दपुर ( आधुनिक बड़नगर ) १०वीं शताब्दी तक विद्या का केन्द्र बना रहा, ऐसा क० मा० मुन्शी का मत है । अणहिलवाड़ का चालुक्य राजकुल मूलराज सोलंकी द्वारा प्रतिष्ठित हुआ । गुजरात अनुवृत्त से विदित है कि मूलराज का पिता कन्नौज में राजा था तथा उसकी माता चावडा राजकुल की कन्या थी । अभिलेखों में भी उसके पिता को महाराजाधिराज लिखा गया है । उसने अपने मामा को मारकर चावडा की गद्दी हथिया ली । साम्भर के
१ - स विष्णुदत्तो वयसा पूर्णषोडशवत्सरः ।
गन्तु ं प्रववृते विद्या- प्राप्तये वलभी पुरीम् ॥ कथा सरित्सागर - तरंग ३२ ।
२ - प्रभावक् चरित - सिद्धर्षि प्रबन्ध |
३ - प्राचीन भारत का इतिहास - डा० रमाशंकर त्रिपाठी ।