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अंगपण्णत्ति
और वर्ण से रहित ) हैं। पुद्गल द्रव्य रूपी -( स्पर्श, गन्ध, रस, वर्ण से .. युक्त ) है। ___ जीव द्रव्य अरूपी है, यद्यपि कर्मबद्ध आत्मा पुद्गलमय शरीर सहित होने से रूपी दीख रहा है, परन्तु वास्तव में अमूर्तिक है । जीव के दो भेद हैं भव्य और अभव्य । जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के प्रकट होने की शक्ति है वह भव्य कहलाते हैं। उनसे विपरीत अभव्य हैं। आसन्न भव्य और दूर भव्य की अपेक्षा भव्य के भी दो भेद हैं। अनन्तर सिद्ध ( एक सिद्ध के मोक्ष जाने के बाद ) अन्तराल पड़ने के बाद मोक्ष में गये हैं । तथा बिना अनन्त के बिना गये वे परम्परा सिद्ध हैं आदि अनेक भेद प्रभेदों का वर्णन जिसमें किया जाता है वह व्याख्याप्रज्ञप्ति परिकर्म है । पाँचों प्रज्ञप्तियों के पदों का परिमाण तीन शून्य, पाँच, शन्य, एक आठ और एक सहित ( १८१०५००० ) एक करोड़, इक्यासी लाख, पाँच हजार है ॥ १३-१४ ॥ ॥ इस प्रकार परिक्रम का कथन समाप्त हुआ।
दृष्टिवाद अंग का कथन अडसीदोलक्खपयं सुतं सूचेदि मिच्छविट्ठीणं । वाए इदि खलु जीवो अबंधओ बंधओ वावि ॥ १५॥
अष्टाशीतिलक्षपदं सूत्रं सूचयति मिथ्यादृष्टीनां । वादे इति खल जोवोऽबन्धको बन्धको वापि ॥
पयाणि ८८०००००। णिक्कत्ता णिग्गुणओ अभोजओ सप्पयासओ णिच्चो। परप्पयासकरणो जीवो अत्थेव वा · गस्थि ॥१६॥
निष्कर्ता निर्गुणोऽभोजकः स्वप्रकाशको नित्यः ।
परप्रकाशकरणो जीवोऽस्त्येव वा नास्ति ॥ एवं किरियाणाणादिविणयकुदिदिवायाणं । वित्थारं जं वोच्छदि तस्स पयारं णिसामेह ॥ १७ ॥
क्रियाज्ञानादिविनयकुदृष्टिवादानां । विस्तारं यद्बुवति तस्य प्रकारं निशाम्यत ॥ दृष्टिवाद अंग का सूत्र नाम का अर्थाधिकार अट्टासी लाख पदों द्वारा मिथ्यादृष्टियों के बाद में जीव अबन्धक ही है, निर्गुण ही है। वा निश्चय से बन्धक ( बाँधा हुआ ) ही है, अकर्ता ही है, अभोक्ता ही है, स्वप्रकाश