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अंगपण्णत्ति कहते हैं । अथवा इस बारहवें अंग में अनेक दृष्टियों का वर्णन किया है इसलिए इसको दृष्टिवाद कहते हैं। - इस प्रकार तीन सौ सठ पाखण्ड ( मिथ्या ) वादियों का निराकरण करने वाला दृष्टिवाद नामक अंग का प्ररूपण किया।
इदि बारहअंगाणं समरणमिह भावदो मयाणिच्चं । सुभचंदेण हु रइयं जो भावइ सो सुहं पावइ ॥ ७४ ॥ इति द्वादशांङ्गानां स्मरणमिह भावतो मया नित्यं ।
शुभचन्द्रेण हि रचितं यो भावयति स सुखं प्राप्नोति ॥ एयारसुदसमुद्दे जो दिव्वदि दिव्वभावेण । सो संसारदवाणलजालालोणो ण संपज्जइ ॥ ७५ ॥ - एकादशश्रुतसमुद्रे यो दीव्यति' दिव्यभावेन ।
स संसारदावानलज्वालालीनो न सम्पद्यते॥ दंसणणाणचरितं तवे य पावंति सासणे भणियं । जो भाविऊण मोक्खं तं जाणह सुदह माहप्पं ॥ ७६ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रेण तपसा च प्राप्नुवन्ति शासने भणितं ।
यो भावयित्वा मोक्षं तज्जानीहि श्रुतस्य माहात्म्यं । एयारसंगपयकयपरूवणं मए पमाददोसेण । भणियं किं पि विरुद्धं सोहंतु सुयोगिणो णिच्चं ॥ ७७॥
एकादशाङ्गपदकृतप्ररूपणं मया प्रमाददोषेण ।
भणितं किमपि विरुद्धं शोधयन्तु सुयोगिनो नित्यं ॥ इदि सिद्धतसमुच्चये बारहअङ्गसमरणावराभिहाणे अंगपण्णतीए
अङ्गाणिवणाणाम पढमो अहियारो सम्मत्तो ॥१॥ इस प्रकार मुझ शुभचन्द्र ने भावपूर्वक बारह अंगों का स्मरण करके इस ग्रन्थ की रचना की है । जो भव्य जीव इस ग्रन्थ की भावना करता है, चिन्तन करता है वह सुख को प्राप्त करता है। अर्थात् वह सांसारिक अभ्युदयों का उपयोग कर मुक्ति को प्राप्त करता है । ७४ ॥
जो भव्य प्राणी इस ग्यारह अंग रूप शास्त्र समुद्र में दिव्य भावों से १. क्रीडति ।