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अंगपण्णत्ति
पन्द्रह, सोलह, पाँच, पाँच नौ शून्य सात तीन सात शून्य चार-चार आठ और एक सारे श्रुत के अक्षर हैं ॥ १४ ॥ __ 'अंकानां वामनो गतिः' 'अंकों की विपरीत गति होती है' इस नियम के अनुसार १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इतने अंग बाह्य और प्रविष्ट श्रुत के समस्त अपुनरुक्त अक्षर हैं। अर्थात् एक कम एक ही प्रमाण वा बीस अंक प्रमाण सारे श्रुत के अक्षरों की संख्या है। यह अपुनरुक्त अक्षर हैं। पुनरुक्त अक्षरों की संख्या का नियम नहीं है।
प्रथम आचाराङ्ग का कथन आयारं पढमंगं तत्थद्वारससहस्सपयमेतं । यत्थायरंति भव्वा मोक्खपहं तेण तं णाम ॥ १५ ॥
आचारं प्रथमांगं तत्राष्टादशसहस्रपदमात्रं ।
यत्राचरन्ति भव्या मोक्षपथं तेन तन्नाम ॥ प्रथम अङ्ग आचारांग है-उसके अठारह हजार पद हैं । जिसमें भव्य जीव मोक्षमार्ग का आचरण करते हैं, आराधना करते हैं, अतः इस अङ्ग को आचारांग कहते हैं। 'आचरंति-मोक्ष-मार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आचारः' जिसके द्वारा वा जिसमें मोक्षमार्ग की आराधना करते हैं, मोक्षमार्ग का आचरण करते हैं वह आचार कहलाता है, उस मोक्षमार्ग के आचार ( आचरण ) चारित्र का जो अङ्ग है, कारण है, प्ररूपक है वह आचारांग कहलाता है अतः आचारांग यह सार्थक नाम है ।। १५ ॥
आचारांग का प्ररूपण कहं चरे कहं तिढे कहमासे कहं सये । कहं भासे कहं भुजे कहं पावं ण बंधइ ॥ १६ ॥
कथं चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत कथं शयीत ।
कथं भाषेत कथं भंजीत कथं पापं न बध्यते ॥१६॥ जदं चरे जदं तिढे जदमासे जदं सये। जदं भासे जदं भंजे एवं पावं ण बंधइ ॥ १७ ॥
यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतं आसीत यतं शयीत ।
यतं भाषेत यतं भुजीत एवं पापं न बध्यते ॥ १७॥ प्रथम आचारांग में “किस तरह आचरण करे ? खड़े किस प्रकार होवे ? बैठे कैसे ? किस तरह शयन करे ? किस तरह भाषण (वार्तालाप)