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प्रथम अधिकार
आठसौ अठ्ठासी ( १६३४, ८३०७८८८ ) अपुनरुक्त अक्षर हैं । अर्थात् यह मध्यम पद के अक्षरों की संख्या है ।। ५ ।।
विशेषार्थ
इस गाथा में कथित पद के अक्षरों का प्रमाण सर्वदा के लिए निश्चित है । अत: इसी को मध्यम पद कहते हैं । परमागम में द्रव्यश्रुत का ज्ञान कराने के लिए जहाँ पदों का प्रमाण बताया गया है, वहाँ यह मध्यम पद ही समझना चाहिए । शेष अर्थ पद और प्रमाणपद लोक व्यवहार के अनुसार होते हैं ।
संघात श्रुतज्ञान का लक्षण तथा उसके द्वारा प्रज्ञापनीय विषय और प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान का स्वरूप
संखसहस्स पर्योहं संघादसुदं णिरूवियं जाण । इगिदरगदीणां रम्मं तं संखेज्जेहि पडिवत्ती ॥ ६ ॥
संख्यातसहस्रपवैः संघातश्रुतं निरूपितं जानीहि । एकतरगतीनां रम्यं तत्संख्यातैः प्रतिपत्तिः ॥
एक पद के आगे क्रम से एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाय, तब संघात नामक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है । अर्थात् संख्यात हजार पदों के समूह को संघात श्रुतज्ञान कहते हैं । यह संघात नामक श्रुतज्ञान चारगति में से एक गति के स्वरूप का रमणीय निरूपण करता है । संख्यात संघातों के समूह को प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान कहते हैं । अर्थात् - चारगति में से किसी एक गति का निरूपण करने वाले संघात श्रुतज्ञान के ऊपर क्रमशः एक-एक अक्षर की तथा पदों और संघातों की वृद्धि होते-होते जब संख्यात संघात की वृद्धि हो जाती है, तब एक प्रतिपत्तिक नामक श्रुतज्ञान होता है ॥ ६ ॥
विशेषार्थ
इस गाथा में संख्यात हजार नहीं है परन्तु जीव प्रबोधिनी टीका में संख्यात हजार संघात की वृद्धि को एक प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान कहा है ।
एक पद के ऊपर और संघात नाम के ज्ञान के पूर्व जितने ज्ञान के भेद हैं वे सब पद समास के भेद हैं । संघात और प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान के मध्य में जितने श्रुतज्ञान के विकल्प हैं वे सब संघात समास ज्ञान के भेद हैं ।