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अंगपण्णत्ति दशपूर्वाणां वेत्तारौ विशाखश्रीप्रौष्ठिलौ ततः सूरी।
क्षत्रियः जयसः विजयः बुद्धिल्लसुगंगदेवौ च ॥ सिरिधम्मसेणसुगणी' तत्तो एगादसंगवेत्तारा । णक्खत्तो जयपालो पंडू धुयसेण कंसगणी ॥ ४७ ॥
श्रीधर्मसेनसुगणी तत एकादशाङ्गवेत्तारः।
नक्षत्रः जयपालः पांडु: ध्रुवसेनः कंशगणी ॥ अग्गमगि सुभद्दो जसभद्दो भद्दबाहु परमगणो । आइरियपरंपराइ एवं सुदणाणमावहदि ॥ ४७ ॥
अग्रिमाजी सुभद्रः यशोभद्रः भद्रबाहः परमगणी ।
आचार्यपरंपरया एवं श्रु तज्ञानं आवहति ॥ पाँच श्रुतकेवली पश्चात् क्रमशः विशाखाचार्य, श्री प्रौष्ठिल, क्षत्रियाचार्य, जयस, विजय, बुद्धिल, सुगगदेव, धर्मसेन, सुगणी, नाग, सिद्धार्थ ये ग्यारह मुनि दश पूर्व और ग्यारह अंग के ज्ञानी हुए थे। इस गाथा में ग्यारह नाम नहीं निकलते हैं अन्य ग्रन्थों में सुगणी के स्थान में नाग और धृतिषेण, सिद्धार्थ ये नाम आते हैं । इसके पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँच आचार्य ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए हैं।
तत्पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु ( यशोबाहु) परमगणी ( लोहाचार्य ) ये चार आचार्य एक अंग के ज्ञाता थे। इस प्रकार यह आचार्य परम्परा, श्रुतज्ञान को धारण करती हुई अक्षुण्णरूप से आ रही है ।। ४४४५-४६-४७ ॥
कालविसेसा णटुं सुदणाणं अप्पबुद्धिधरणादो। तं असं संवहदि धम्मुवदेसस्स सझै दु॥४८॥
कालविशेषात् नष्टं श्रुतज्ञानं अल्पबुद्धिधरणतः।
तदंशं संवहति धर्मोपदेशस्य श्रद्धानेन तु॥ अन्य ग्रन्थों के अनुसार कुछ नाम में परिवर्तन अवश्य है तथापि परम्परा से आने वाले आचार्यों के नाम में अधिक परिवर्तन नहीं है।
काल के प्रभाव से अल्पबुद्धि धारक होने से अंगों का श्रुतज्ञान नष्ट हो १. नागसेन सिद्धार्थ धृतिषेणेति त्रीणिनामानि पुस्तकाद्वतानीत्यवभाति । नागसेन,
सिद्धार्थ, धृतिषेण ये तीन नाम पुस्तक से आये हुए प्रतीत होते हैं । २. प्रथमाङ्ग वेत्तारः। ३. लोहार्यश्चेति ।