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तृतीय अधिकार
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इति वृषभेणापि भणितं प्रश्नतः वृषभसेनयोगिनः । शेषा अपि जिनवरेन्द्राः स्वगणिनः प्रति तथा समाख्यान्ति ॥ सिरिवड्ढमाणमुहकयविणिग्गयं बारहंगसुदणाणं । सिरिगोयमेण रइयं अविरुद्धं सुणह भवियजणा ॥ ४२ ॥ श्रीवर्धमानमुखकजविनिर्गतं द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानं । श्री गौतमेन रचितं अविरुद्धं शृणुत भव्यजनाः ! ॥ श्री वर्द्धमान भगवान् के मुख से निकले हुए द्वादशांग श्रुतज्ञान को गौतम गणधर ने अविरुद्ध रूप से रचना की थी । हे भव्य जीवो, तुम उसको सुनो । साक्षात् महावीर भगवान् के मुख कमल से निकले वचनों को सुनकर द्वादशांग की रचना की थी, शुभचन्द्र आचार्य कहते हैं वह वीर प्रभु के वचनों का प्रवाह अक्षुण्णरूप से चला आ रहा है, उसका हे भव्यजीवो, तुम श्रद्धा करो ।। ४१-४२ ।।
सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मणाहस्स तेण जंबुस्स । विण्हू णंदीमित्तो तत्तो य पराजिदो य (त) त्तो ॥ ४३ ॥ श्री गौतमेन दत्तं सुधर्मनाथस्य तेन जम्बूनाम्नः । विष्णुः नन्दिमित्रः ततश्चऽपराजितः ततः ॥
श्रुतप्रवाह से आने वाले आचार्यों की परम्परा महावीर भगवान् के मोक्ष जाने के बाद गौतम गणधर केवलज्ञानी हुए और उनसे सुधर्माचार्य ने तत्त्व देशना को प्राप्त किया । सुधर्माचार्य से जम्बूस्वामी सर्व श्रुत के ज्ञायक और अन्त में केवलज्ञानी हुए । अर्थात् महावीर स्वामी के पश्चात् तीन अनुबद्ध केवली हुए - गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी । इनके पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँच महामुनि इस कलियुग में द्वादशांग के ज्ञाता हुए थे । अर्थात् इस पंचमकाल में पाँच श्रुतवली हुए थे ॥ ४३ ॥
गोवद्वणो य तत्तो भद्दभुओ अंतकेवली कहिओ । बारह अंगविदह पंचेदे कलियुगे जादा ॥ ४४ ॥ गोवर्धनश्च ततः भद्रबाहुः अन्तकेवली कथितः । द्वादशाङ्गविदः पंचैते कलियुगे जाताः ॥ दसपुव्वाणं वेदा विसाहसिरिपोढिलो तदो सूरी । खत्तिय जयसो विजयो बुद्धिल्लसुगंगदेवा य ॥ ४५ ॥
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