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तृतीय अधिकार
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मैं प्रकृति से दुर्बल हूँ, उपवास आदि नहीं कर सकता " यदि मुझे लघु ( थोड़ा ) प्रायश्चित्त देते हैं तो मैं अपने दोषों का निवेदन करूंगा, इस प्रकार का विचार कर वा अपने प्रति गुरु के मन में अनुकम्पा उत्पन्न कराकर दोषों का निवेदन करना दूसरा अनुमानित दोष है ।
जिन दोषों को दूसरों ने नहीं देखा, उन दोषों को छिपाकर दूसरों के द्वारा जाने गये दोषों का कहना मायाचार यद्दृष्ट दोष है ।
आलस्य वा प्रमाद के कारण सूक्ष्म दोषों की परवाह न करके स्थूल दोषों का प्रतिपादन करने वाले के स्थूल दोष प्रतिपादन दोष है ।
महान् दुश्चर प्रायश्चित्त के भय से महान् दोषों को छिपाकर सूक्ष्म दोषों का (अप दोषों का ) गुरु के समक्ष कथन करना सूक्ष्माचार निवेदन नामक पाँचवाँ दोष है ।
"ऐसा व्रतों का अतिचार ( दोष ) लगने पर क्या प्रायश्चित्त होगा ?" इस प्रकार किसी उपाय से प्रायश्चित्त जानकर पश्चात् गुरु के समीप अपने दोषों का निरूपण करना छुट्टा छन्न नाम का दोष है ।
पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण के समय बहुत यतियों के समुदाय में कोलाहल में अपने दोषों का विवेदन करना जिससे गुरु अच्छी तरह नहीं सुन सकें वह शब्दाकुलित नामक सातवाँ दोष है ।
गुरु के द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त युक्त ( ठीक ) है या नहीं ? आगम विहित है या नहीं ? इस प्रकार शंकित मन होकर अन्य साधुजनों से पूछना बहुजन नामक दोष है ।
जब किसी प्रयोजन का उद्देश्य लेकर अपने ही समान गुरु के लिए प्रमाद से आचरित दोषों का निवेदन करना अव्यक्त नाम का नवमा दोष है । इसमें किया गया कठोर प्रायश्चित्त भी निष्फल होता है । इसके समान ही मेरा अपराध है, उसको यही जानता है, जो इसके लिये प्रायचित्त दिया गया है, वही मैं शीघ्र ले लूंगा, वहो प्रायश्चित्त शीघ्र ही मुझे करना चाहिये । इस प्रकार गुरु से अपने दोषों को संवरण करना तत्सेवित - नाम का दसवाँ दोष है ।
एवं वहछेया विय तद्दोसा तहविहा वि तब्भेया ।
वणिज्जंते स जत्थ वि णिसीदिकाएस वित्थारा ॥ ३८ ॥ एवं दशच्छेदा अपि च तद्दोषा तथा विधा अपि च तद्भेदाः । वर्ण्यन्ते तद्यत्रापि निसीतिकासु विस्तारेण ॥ इदि विसेहियपइष्णयं - इति निषेधिका प्रकीर्णकं ।