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अंगपण्णत्त
किसी दोष के हो जाने पर चिर प्रव्रजित साधु को पक्ष, माह आदि काल के विभाग से संघ से दूर कर देना, उसका संसर्ग नहीं करना परिहार नामक प्रायश्चित्त है ।
चिर प्रव्रजित साधुओं के महाव्रतों का मूलच्छेद करके पुनः दीक्षा देना उपस्थापना नामक प्रायश्चित्त कहा जाता है । इसका दूसरा नाम मूल प्रायश्चित्त भी है ।
( जिसने अपने धर्म को छोड़कर मिथ्यात्वको अंगीकार कर लिया है। उसे पुनः सद्धर्म में स्थापित करना श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त है यह प्रायश्चित्त उपस्थापना में गर्भित हो जाने से तत्त्वार्थसूत्र में इसका उल्लेख नहीं है परन्तु आचारसार, चारित्रसार, मूलाचार आदि में इसका कथन है)
जैसे आरोग्य के इच्छुक दोष के अनुसार बल, काल आदि की अपेक्षा चिकित्सा का प्रयोग करता है उसी प्रकार आत्मकल्याण के इच्छुकों को बल, काल, संहनन आदि के अनुसार स्वकृत अपराध जनित दोषों को दूर करने के लिए उपर्युक्त दश प्रकार के प्रायश्चित्त का प्रयोग करना चाहिए । आलोचना के दश भेद
दहभेया विय छेदे दोसा आकंपियं दस एदे । अणुमणिय जं दिट्ठ बादरं सुहमं च छिण्णं च ॥ ३६ ॥ दशभेदा अपि च छेदे दोषा आकंपितं दश एते । अनुमानितं यद्दृष्टं बादरं सूक्ष्मं च छिन्नं च ॥ सड्ढावुलियं बहुजणमव्वत्तं चावि होदि तस्सेवी । दोसणिसेयविमुत्तं इदि पायच्छित्तं गहीदव्वं ॥३७॥ शब्दाकुलितं बहुजनमव्यक्तं चापि भवति तत्सेवी | दोषनिषेक विमुक्तं इति प्रायश्चित्तं गृहीतव्यं ॥
स्वदोष रहित निष्कपट भाव से की गई आलोचना ही दोष नाशक होती है अतः दश दोष रहित आलोचना करना चाहिए ।
आलोचना के दश दोष -- आकम्पित, अनुमानित, यद्दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ये दश दोषों के नाम हैं ।। ३६-३७।।
विशेषार्थ
उपकरण देने से मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे, इस प्रकार विचार करके प्रायश्चित्त के समय उपकरण आदि देना प्रथम आलोचना दोष है ।