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तृतीय अधिकार
२३३ भवनवासी देवों के अवधिज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा ऊर्ध्वदिशा में उत्कृष्ट रूप से मेरु पर्वत के शिखर पर्यन्त क्षेत्र की, अधोभाग में अपने भवन से कुछ नीचे और तिरछे रूप से बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है । जघन्य रूप से पच्चीस योजन प्रमाण क्षेत्र जानते हैं । काल को अपेक्षा से उत्कृष्ट करोड़ वर्ष और जघन्य एक दिन के भीतर की बात जानते हैं।
जिन देवों की आयु दश हजार वर्ष प्रमाण है वे देवों के दो दिन के बाद और पल्योपम आयु वाले देवों के पाँच दिन के बाद अमृतोपम मानसिक आहार होता है।
दश हजार वर्ष को आयु वाले देव, सात श्वासोच्छ्वास प्रमाण कालमें और पल्योपम आयु वाले देव पाँच मुहूर्त में एक उच्छ्वास लेते हैं। इस प्रकार विविध सुखों का अनुभव करते हुए भवनवासी देव देवांगनाओं के साथ अनेक अनुपम सुख भोगते हैं। उनके शयन आसन्न मृदुल विचित्र रूप से रचित तथा शरीर मन वचन को आनन्दोत्पादक होते हैं ।
व्यन्तर देवों के किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच ये आठ भेद हैं।
भवनवासियों के समान इनके भी भवन, भवनपुर और आवास ये तीन भेद हैं ।
भवन के कोट, वन, जिनमन्दिर, चैत्यवृक्ष भवनवासियों के समान हैं अन्तर इतना है इनके भवनों का उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और -बाहुल्य तीन सौ योजन प्रमाण है । जघन्य भवनों का विस्तार पच्चीस योजन और बाहुल्य एक योजन के चार भागों में से तीन भाग प्रमाण है। __उत्कृष्ट भवनपुरों का विस्तार इक्यावन लाख योजन और जघन्य भवनपुरों का विस्तार एक योजन मात्र है ।
उत्कृष्ट आवास का विस्तार बारह हजार दो सौ योजन प्रमाण और जघन्य आवास तोन कोश प्रमाण है।
चैत्य वृक्ष के मूल में चारों ओर चार-चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं।
व्यन्तर जाति के देवों में त्रास्त्रिश और लोकपाल जाति के देव नहीं होते।
इनको उत्कृष्ट आयु एक पल्य प्रमाण और जघन्य आयु दश हजार वर्ष प्रमाण है।
दश हजार वर्ष प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव अवधिज्ञान से जघन्य पाँच कोश और उत्कृष्ट पचास कोश को जानते हैं।