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तृतीय अधिकार परमोरालियदेहसम्मोसरणाण धम्मदेसस्स । वण्णणमिह तं थवणं तप्पडिबद्धं च सत्थं च ॥१५॥
परमौदारिकदेहसमवशरणानां धर्मदेशस्य । वर्णनमिह तत्स्तवनं तत्प्रतिबद्धं च शास्त्रं च ॥
थवं गदं-स्तवं गतं जिसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा चतुविशति तीर्थंकरों के पंच कल्याण, चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य, परम औदारिक शरीर, समवशरण की विभूति और धर्मोपदेश का वर्णन है ( किया जाता है ) वह वा उससे प्रतिबद्ध शास्त्र स्तवन प्रकीर्णक है ।।१४-१५॥
विशेषार्थ चतुर्विंशति तीर्थंकरों का स्तवन व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार का है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र और काल के आश्रय से जो वर्णन किया जाता है वह व्यवहार स्तवन है और भाव स्तवन परमार्थ या निश्चय नय से है।
इस ग्रन्थ में छह प्रकार के स्तवन का वर्णन किया है। नाम स्तवन स्थापना स्तवन, द्रव्य स्तवन, काल स्तवन, क्षेत्र स्तवन और भाव स्तवन का नाम उच्चारण करके उस स्तवन के विषय का वर्णन किया है। ___ चतुर्विशति तीर्थंकरों का एक हजार आठ नामों के द्वारा वा निजनिज नाम के द्वारा स्तुति करना नाम स्तवन है जैसे श्रीमान् स्वयंभू भगवान् की जय हो इत्यादि।
चविंशति तीर्थंकर या तीनकाल सम्बन्धी अपरिमित तीर्थंकर अरिहंत आदि पाँच परमेष्ठी की कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमाओं की वर्ण, ऊँचाई तथा सौम्यता आदि के आश्रय से स्तुति करना स्थापना स्तवन है। जैसे नन्दीश्वर में पाँच सौ धनुष ऊँचो प्रतिमा है । उनके नख लाल वर्ण के हैं, जिनके अवलोकन से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है इत्यादि रूप से जिनबिम्ब का स्तवन करना । चतुर्विंशति तीर्थंकरों के शरीर, चिह्न, गुण, ऊँचाई, दीक्षा, वृक्ष, माता-पिता आदि की मुख्यता से जो लोकोत्तम जिनेश्वरों का स्तवन किया जाता है वह द्रव्य स्तवन है। तीर्थंकर का शरीर तिल आदि नौ सौ व्यंजन और शंख, कमल आदि एक सौ