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अंगपण्णत्ति ये छह द्रव्य पाये जाते हैं, देखे जाते हैं जो छहों द्रव्य से व्याप्त है, वह लोक कहलाता है।
अनन्त अलोकाकाश के मध्य में असंख्यातप्रदेशी पुरुषाकार लोका. काश है।
इस लोक के तीन अवयव हैं, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक ।
ऊर्ध्वलोक मृदंग के तुल्य है, मध्यलोक (तिर्यग्लोक) झालर के समान है और अधोलोक वेत्रासन है । ___ नीचे आधा मृदंग रखकर उस पर पूरा मृदंग रखने पर जो आकार बनता है वैसा ही लोक का आकार है। अथवा कमर पर हाथ रखकर तथा पैर फैलाकर अचल-स्थिर खड़े हुए मनुष्य का जैसा आकार होता है वैसा ही लोक का आकार है। ___अधोलोक नीचे सात रज्ज प्रमाण है, फिर क्रम-क्रम से प्रदेशों में हानि होते-होते लोक के अन्त में एक रज्जु प्रमाण रह जाता है। इसके ऊपर प्रदेश वृद्धि होते-होते ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के समीप पाँच रज्जु प्रमाण होता है। उसके आगे प्रदेश हानि होते-होते लोक के अन्त में एक रज्जु प्रमाण विस्तृत रह जाता है। __यह लोक चौदह रज्जु प्रमाण ऊँचा है। इस लोक के नीचे एक रज्ज प्रमाण स्थान में निगोद जीव रहते हैं, ऊर्ध्वलोक में कल्प विमान देवों का स्थान है, अग्रभाग में सिद्ध जीव स्थित हैं ।
तीन सौ तैंतालीस रज्जु प्रमाण लोक में सर्वत्र एकेन्द्रिय जीव भरे
__इस लोक में अनेक प्रकार के पर्वत, नदी, तालाब, क्षेत्र नारकियों के स्थान, देवों के स्थान, अकृत्रिम जिनमन्दिर आदि अनेक शुभ स्थान हैं। इनका विशेष विस्तार त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों से जानना चाहिये।
इसी लोक में से संसारी जीव मनुष्य भव को प्राप्त कर रत्नत्रय को धारण कर कर्म कालिमा का विनाश कर मुक्ति पद प्राप्त करते हैं।
हिंसादि पाँच पाप, मिथ्यात्व और कषाय के वशीभूत होकर अनादिकाल से कर्मबन्ध के कारण संसार में भटक रहे हैं और जन्म, मरण, जरा, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि अनेक दुःखों से आकुल-व्याकुल रहते हैं।
इस प्रकार अनादि निधन इस लोक के अवयवों के सार का कथन किया जाना है वह लोकबिन्दुसार पूर्व है ।